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छह
साधना का मूलाधार
अध्यात्मसाधना में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक् चारित्र'- इन तीनों का गौरवपूर्ण स्थान है। दृष्टि की विशुद्धि से ज्ञान विशुद्ध होता है और ज्ञान की विशुद्धि से ही चारित्र निर्मल होता है। अतः सन्त-संस्कृति के प्राण-प्रतिष्ठापक भगवान् महावीर ने साधना के कठोर कण्टकाकीर्ण महामार्ग पर बढ़ने के पूर्व दृष्टिविशुद्धि की प्रबल प्रेरणा प्रदान की है। साधना की दष्टि से सम्यग्दर्शन का प्रथम स्थान है, सम्यग्ज्ञान का द्वितीय और सम्यक् चारित्र का तृतीय है। सम्यग्दर्शन :
आत्मा को आत्मविस्मृति के गहन अन्धकार से निकालकर १. तिविहे सम्मे पण्णत्ते, तं जहा-णाणसम्मे, दंसणसम्मे चरित्तसम्मे ।
-स्थानाङ्ग ३।४।११४ २. नादंसणिस्स नाणं,
-उत्तराध्ययन २८॥३० ३. नाणेण विना न हुति चरणगुणा ।
-उत्तराध्ययन २८१३० ४. जेयाऽबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्तदंसिणो । असुद्ध तेसिं परक्कतं, सफलं होई सव्वसो ॥
-सूत्रकृताङ्ग प्र०८ गा० २२ सम्म(सरणं पढम, सम्मनाणं बिइज्जियं, तइयं च सम्म चारित्तं, एगभूयमिमं तिगं।
-महानिशीथ, २
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