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धर्म और दर्शन
पाँच करण बताये हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योग ।५०
संक्षेप दृष्टि से कर्म बंध के दो कारण हैं-- कषाय और योग ।
कर्मबन्ध के चार भेद हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ।५९ इनमें प्रकृति और प्रदेश का बंध योग से होता है। स्थिति व अनुभाग का बंध कषाय से होता है ।६० संक्षेप में कहा जाय तो कषाय ही कर्म बंध का मुख्य हेतू है ।६१ कषाय के अभाव में समपरायिक कर्म का बंध नहीं होता। दसवें गुणस्थान तक दोनों कारण रहते हैं अतः वहाँ तक साम्परायिक बंध होता है । कषाय और योग से होने वाला बंध साम्परायिक बन्ध कहलाता है । और गमनागमन आदि क्रियाओं से जो कर्म बंध होता है वह ईर्यापथिक बंध कहलाता है ।६२ ईर्यापथ कर्म की स्थिति उत्तराध्ययन६३ प्रज्ञापना६४ में दो समय की मानी है और
५७. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ।
-तत्त्वार्थ सूत्र ८१ ५८. जोगबंधे, कसायबंधे ।
-समवायाङ्ग ५६. प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः ।
-तत्त्वार्थ सूत्र ८४ ६०. जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ ।
-पंचम कर्मग्रन्थ गा० ६६ जीवाणं चउहि ठाणेहि अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिसु तं० कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं ।
-स्थानांग, ४ स्थान ६१. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्त ।
__ -तत्त्वार्थ सूत्र ८।२ ६२. सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ।।
-तत्त्वार्थ० ६५ ६३. जाव सजोगी भवइ, ताव ईरियावहियं कम्मं निबन्धइ सुहफरिसं
दुसमयठिइयं । तं पढमसमए बद्ध, बिइयसमये वेइयं, तइयसमये निज्जिण्ण।
-उत्तरा०प्र० २६ प्र०७१ ६४. सातावेदणिज्जस्स इरियावहियबंधगं पडुच्च अजहण्णमणुक्कोसेणं दो समया।
-प्रज्ञापना २३।१३ पृ० १३७
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