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(१३५०-क्या.जीव और आत्मा इन दोनों शब्दों का मतलब
एक है ? उ०-हाँ, जैनशास्त्र में तो संसारी-असंसारी सभी चेतनों
के विषय में 'जीव और आत्मा,' इन दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर वदान्त आदि दर्शनों में जीव का मतलब संसार-अवस्था वाले ही चेतन से है. मुक्तचेतन से नहीं, और आत्मा* शब्द तो
साधारण है। (१४५०-आप ने तो जीव का स्वरूप कहा. पर कुछ विद्वानों
का यह कहते सुना है कि आत्मा का स्वरूप अनि. वचनीय अर्थात् वचनों से नहीं कहे जा सकने
योग्य है, सा इस में सत्य क्या है ? उ०-उन का भीकथन युक्त है क्यों कि शब्दों के द्वारा परि
मित भाव ही प्रगट किया जा सकता है । यदि जीव
का वास्तविक स्वरूप पूर्णतया जनना हो तो वह "जीवो हि नाम चतन: शरीराध्यक्षः प्राणानां धारयिता ।" ब्रिह्मसूत्र भाष्य, पृ० १०६, १०१. पा. १. अ०५, सू० ६ भाप्य]
अथात-जाव वह चतन है जो शरीर का स्वामा है और प्राणों को धारण बारने वाला है। __* जपः--" आत्मा वा अरे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" इत्यादिक [बृहदारण्यक ।२४।११]