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उस को व्यवहार नय की अपेक्षा से तथा अपूर्ण व अस्थायी समझना चाहिए | सारांश यह है कि पहला लक्षण निश्चय-दृष्टि के अनुसार है, अत एव तीनों काल में घटने वाला है और दूसरा लक्षण व्यवहार-दृष्टि के अनुसार है, अत एव तीनों काल में नहीं घटने वाला है । अर्थात् संसार दशा में पाया जाने वाला और मोक्ष दशा में नहीं पाया जाने वाला है !
(१२) १० -- उक्त दो दृष्टि से दो लक्षण जैसे जैनदर्शन में किये गये हैं, क्या वैसे जैनेतर- दर्शनों में भी हैं ?
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X अथास्य जीवस्य सहजविजृम्भितानन्तशक्तिहेतुके त्रिसमयावस्थायित्वलचणे वस्तुस्वरूप भूततया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि संसारावस्थायामनादिप्रवाह प्रवृत्तपुद्गलसंश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुकाभिसद्धत्वं व्यवहारजः वस्व हेतु विभक्रन्योऽस्ति । " [प्रवचनसार, अमृतचन्द्र-कृत टीका, गाथा २३ । ]
सारांश - जीवस्त्र निश्चय और व्यवहार इस तरह दो प्रकार का है । निश्चय जीवत्व अनन्त - ज्ञान - शक्तिस्वरूप होने से त्रिकाल स्थायी है और व्यवहार- जीवत्व पौद्गलिक-प्राणसंसर्गरूप होने से संसारावस्था तक ही रहने वाला है ।