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में "सरा तत्थ निवत्तंते तक्का तत्थ न विजई. [ आचारागः ५-६ । ] इत्यादि शब्द से कहा है। यह अनिर्वचनीयत्व का कथन परम निश्चय नय से या परम शुद्धद्रव्यार्थिक नय से समझना चाहिए ।
और हम ने जो जीव का चेतना या अमूर्त्तत्व लक्षण
कहा है सो निश्चय दृष्टि से या शुद्धपर्यायार्थिक नय से। (१५)प्र०-कुछ तो जीव का स्वरूप ध्यान में आया, अब यह
कहिये कि वह किन तत्वों का बना है ? उ०-वह स्वयं अनादि स्वतन्त्र तत्त्व है, अन्य तत्त्वों से
नहीं बना है। (१६)म०-सुनने व पढ़ने में आता है कि जीव एक रासा
यनिक वस्तु है, अर्थात् भौतिक मिश्रणों का परिणाम है, वह कोई स्वयंसिद्ध वस्तु नहीं है, वह
उत्पन्न होता है और नष्ट भी। इस में क्या सत्य है ? उ०-जो सूक्ष्म विचार नहीं करते, जिन का मन विशुद्ध नहीं
होता और जो भ्रान्त हैं, वे ऐसा कहते हैं। पर उन का ऐसा कथन भ्रान्तिमूलक है ।
देखो -चार्वाकदर्शन [ सर्वदर्शनसंग्रह पृ० १ ] तथा आधुनिक भौतिकवादी ‘हेकल' आदि विद्वानों के विचार प्रा० श्रीध्रुवरचित [प्रापणा धर्म पृष्ठ ३२५ से आगे ।]