________________ प्रकार 62 वर्षों तक इन तीनों केवलियों की ज्ञानज्योति प्रकाशित रही। तत्पश्चात् विष्णमनि को आदि लेकर भद्रबाहु स्वामी तक पाँच श्रुतिकेवलियों ने 100 वर्षों तक जानदीप को प्रज्वलित रखा। तदुपरान्त विशाखाचार्य को आदि लेकर धर्मसेन तक 11 दशपर्वधारी आचार्यों ने 183 वर्ष तक श्रुत का प्रवाह निरन्तर बनाये रखा। तत्पश्चात् आचार्य नक्षत्र को आदि लेकर आचार्य कंस तक ग्यारह अंग के धारक आचार्यों ने 123 वर्ष तक श्रुत की परम्परा को निरन्तर प्रवहमान रखा। तत्पश्चात् एकांगधारी आचार्य अर्हबलि, माघनन्दि, धरसेन और पुष्पदन्त-भूतबलि ने 118 वर्ष तक जिनशासन प्रकाशित किया। परन्तु कालदोष के प्रभाव से जनसामान्य में क्षयोपशम की मन्दता प्रकटित होने लगी तब जिनशासन का ह्रास न हो इसलिए आचार्य गुणधरस्वामी ने 'कसायपाहुड' नामक शास्त्र की रचना की। यह 15 अध्यायों से परिपूर्ण है। आचार्य गुणधरस्वामी 'महाकम्मियपाहुड' और 'पेज्जपाहुड' के ज्ञाता थे। फिर इनके बाद आचार्य धरसेन स्वामी ने दक्षिण से आचार्य अर्हद्बलि द्वारा भेजे गये दो मुनियों को सिद्धांत का उपदेश दिया . और उनसे 'षट्खण्डागम' नामक शास्त्र की रचना करवाई। इस प्रकार आचार्य धरसेन स्वामी अर्थदृष्टि से तथा आचार्य पुष्पदन्त, भूतबलि सूत्र दृष्टि से षट्खण्डागम के रचयिता कहलाये। अतः आचार्य गुणधर स्वामी का 'कसायपाहुड' और इनका 'षट्खण्डागम' जैन श्रुतरूपी भवन के निर्माण में नींव के पत्थर के समान अधिष्ठित हुए। आगम साहित्य की परम्परा अर्द्धमागधी जैनागम - श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर की वाणी को गणधरों ने आगम के रूप में निबद्ध किया। कालदोष के प्रभाव से वह आगम धीरे-धीरे ह्रास को प्राप्त होता गया एवं श्रुतधारा में प्रवाह निरन्तर नहीं रह सका इसलिए उसको व्यवस्थित करने के लिए आचार्यों ने संगीतियाँ आयोजित की जिन्हें 'आगम वाचना' कहा जाता है। वीर निर्वाण से 980 या 993 वर्ष के मध्य में पाँच आगम वाचनाएँ हुईं जिनसे श्रुत का संवर्द्धन हुआ। प्रथम वाचना - वीर निर्वाण के लगभग 160 वर्ष पश्चात् 12 वर्षों का दुर्भिक्ष पड़ा, जिसमें समस्त श्रमण संघ पाटलिपत्र में पुनः एकत्रित हुआ। 11 अंगों को एकत्र करके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org