Book Title: Devsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 8
________________ विषय प्रवेश ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर प्राचीन भारत में दो श्रमण परम्पराओं का उल्लेख मिलता है। जिसमें जैनदर्शन और बौद्धदर्शन समान रूप से प्रथम परम्परा में सम्मिलित हैं एवं द्वितीय वैदिक परम्परा। इन दोनों परम्पराओं का अपना स्वतन्त्र चिन्तन, अस्तित्व, आचार संहिता और सैद्धान्तिक दृष्टिकोण है। जैन मान्यतानुसार प्रवर्तमान पंचमकाल के प्रारम्भ होने में जब 3 वर्ष 8-माह 15 दिन शेष रह गए थे, तब भगवान् महावीर स्वामी को निर्वाण की प्राप्ति हुई। उससे पूर्व महावीर स्वामी ने केवलज्ञान रूपी ज्योति के द्वारा 30 वर्ष तक लोक के समस्त प्राणियों का कल्याण किया। तीर्थंकर प्रदत्त भावों को हृदयङ्गम किये हुए जैनाचार्यों द्वारा रचित वाङ्मय बहुत विशाल और व्यापक है जिसे श्रुतज्ञान कहते हैं। अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि को हृदयङ्गम कर उनके प्रधान एवं प्रथम शिष्य गौतम गणधर ने बारह अंगों में निबद्ध किया। वह भाव श्रुत और अर्थपदों के कर्ता तीर्थंकर हैं, श्रुतपर्याय में निमित्त होने से गौतमस्वामी द्रव्यश्रुत के कर्ता हैं। आशय यह है कि इस युग के प्रथम . सूत्रकर्ता गौतम गणधर हैं। इस प्रकार श्रुत का मूलकर्ता तीर्थंकर को माना गया है, उत्तरसूत्रकर्ता गणधर एवं उत्तरोत्तर सूत्रकर्ता अन्य आचार्य हैं। अतः समस्त वाङ्मय अनुभूति, ज्ञान और चिंतन इन तीनों के समन्वय का प्रतिफल है। शब्द और अर्थ के योग में स्वानुभूति के सत्य की स्थापना कर आचार्य अभिव्यक्ति को एक नया परिवेश प्रदान करते हैं। जिस सूत्रार्थ ज्ञान को आचार्यों ने परम्परा से प्राप्त किया है उसी ज्ञान को जनमानस में सहजरूप से व्यक्त कर उद्बोधन का कार्य करते हैं। आचार्य परम्परा का कार्य श्रुतज्ञान का संरक्षण और प्रवर्तन है। तीर्थंकर के मुख से निस्सत वाणी को सर्वसाधारण तक पहुँचाने का कार्य आचार्य परम्परा का विशिष्ट कार्य है। दिगम्बराचार्यों ने महावीर की परम्परा को जीवित रखने के लिए अगणित ग्रन्थों का प्रणयन कर अपनी साधना में गुणात्मक परिवर्तन कर परम्परा को जीवन्त रखा है। महावीर स्वामी के निर्वाणोपरान्त 12 वर्षों तक गौतम स्वामी ने केवलज्ञान प्राप्त करके श्रुतज्ञान को गति प्रदान की। इनके पश्चात् 12 वर्षों तक सुधर्माचार्य केवली रहे तत्पश्चात् 38 वर्षों तक जम्बूस्वामी केवली रहकर श्रुतपरम्परा को प्रवाहित करते रहे। इस महाल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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