Book Title: Dashvaikalik Sutram
Author(s): Punyakiritivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
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________________ श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् // 386 // नवममध्ययनं विनयसमाधिः, द्वितीयोद्देशकः सूत्रम् |10-11 देवोदाहरणेन फलम्। सूत्रम |12-15 लोकोत्तर कुशलाप्रवृत्तेर्दुःखिततरा विज्ञेया इति सूत्रार्थः॥८॥विनयफलमाह-'तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैव विनीततिर्यञ्च इव सुविनीतात्मानो लोकेऽस्मिन्नरनार्य इति पूर्ववत्। दृश्यन्ते सुखमेधमानाः शुद्धिं प्राप्ता महायशस इति पूर्ववदेव, नवरंस्वाराधितनृपगुरुजना उभयलोकसाफल्यकारिण एत इति सूत्रार्थः॥९॥ तहेव अविणीअप्पा, देवा जक्खा अगुज्झगा। दीसंति दुहमेहंता, आभिओगमुवट्ठिआ॥सूत्रम् 10 // ___ तहेव सुविणीअप्पा, देवा जक्खा अगुज्झगा।दीसंति सुहमेहता, इट्टि पत्ता महायसा॥सूत्रम् 11 // एतदेव विनयाविनयफलं देवानधिकृत्याह-'तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैव यथा नरनार्यः अविनीतात्मानो भवान्तरेऽकृतविनयाः देवा वैमानिका ज्योतिष्का यक्षाश्च व्यन्तराश्च गुह्यका भवनवासिनः, त एते दृश्यन्ते आगमभावचक्षुषा दुःखमेधमानाः पराज्ञाकरणपरवृद्धिदर्शनादिना, आभियोग्यमुपस्थिताः- अभियोग:-आज्ञाप्रदानलक्षणोऽस्यास्तीत्यभियोगी तद्भाव आभियोग्यं कर्मकरभावमित्यर्थः उपस्थिताः- प्राप्ता इति सूत्रार्थः // 10 // विनयफलमाह-'तहेव'त्ति सूत्रम्, तथैवे ति पूर्ववत्, सुविनीतात्मानो जन्मान्तरकृतविनया निरतिचारधर्माराधका इत्यर्थः, देवा यक्षाश्च गुह्यका इति पूर्ववदेव, दृश्यन्ते सुखमेधमाना अर्हत्कल्याणादिषु ऋद्धि प्राप्ता इति देवाधिपादिप्राप्तर्द्धयो महायशसो विख्यातसगुणा इति सूत्रार्थः // 11 // जे आयरिअउवज्झायाणं, सुस्सूसावयणंकरा / तेसिं सिक्खा पवईति, जलसित्ता इव पायवा॥ सूत्रम् 12 / / अप्पणट्ठा परट्ठा वा, सिप्पा णेउणिआणि अ। गिहिणो उवभोगट्ठा, इहलोगस्स कारणा॥ सूत्रम् 13 // जेणं बंधं वहं घोरं, परिआवंच दारुणं / सिक्खमाणा निअच्छंति, जुत्ता ते ललिइंदिआ॥सूत्रम् 14 // तेऽवितं गुरुंपूअंति, तस्स सिप्पस्स कारणा। सक्कारंति नमसंति, तुट्ठा निद्देसवत्तिणो।सूत्रम् 15 // // 386 //

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