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( २४ ) अर्थात् पर्यायों से रहित द्रव्य और द्रव्यवियुक्त पर्याय नहीं होते। किंतु उत्पाद विनाश और स्थिति यही द्रव्य का लक्षण है। आचार्य हरिभद्र ने भी प्रकारान्तर से इसी बात का शास्त्रवार्ता समुच्चय में उल्लेख किया है।
मद्रव्यं यन्न पिंडादि धर्मान्तर विवर्जितम् । तदा तेन विनिर्मुक्तं केवलं गम्यते कचित् ॥
(स्त० ७ श्लो० ३६ )
तात्पर्य कि, पिंड कपाल शराब और घटादि रूप अनेक विध धर्मों के अतिरिक्त मृत्तिका रूप द्रव्य और मृत्तिका के अतिरिक्त उक्त नाना विध धर्मों की स्वतंत्र (विभिन्न) रूप से कहीं पर भी उपलब्धि नहीं होती।
- इसलिये पदार्थ न केवल द्रव्य रूप और न सर्वथा पर्याय रूप ही है किंतु द्रव्य पर्याय उभय रूप है उभय रूप से ही उसकी उपलब्धि होती है एवं द्रव्य और पर्याय धर्मी और धर्म कारण तथा कार्य, जाति और व्यक्ति आदि, एक दूसरे से न तो सर्वथा भिन्न हैं और न अभिन्न किंतु भिन्नाभिन्न उभय रूप हैं। जिस प्रकार इनका भेद सिद्ध है उसी प्रकार अभेद भी प्रामाणिक है। तथा जिस प्रकार ये अभिन्न प्रतीत होते हैं उसी प्रकार
"दव्यं पर्याय वियुतं पर्याया द्रव्य वर्जिताः। "क्क कदा केन किं रूपा दृष्टा मानेन केन वा ॥१॥
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