Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 211
________________ (१६२ ) अनेकान्तवाद के स्वरूप को समझा ही नहीं ऐसा कहना तो उनका घोर अपमान करना है। हां इतना तो हम अवश्य कहेंगे कि उन्होंने अनेकान्तवाद का जो खण्डन किया है वह उसके-अनेकान्तवाद के-स्वरूप के अनुरूप नहीं । जिस प्रकार शंकर स्वामी के अनिर्वचनीयवाद के सिद्धान्त के साथ उनके प्रतिपक्षी विद्वानों ने जबरदस्ती की है, अर्थात् अनिर्वचनीय शब्द का मनमाना अर्थ व तात्पर्य कल्पना करके उसका यथारुचि खण्डन करके स्वामी शंकराचार्य के साथ अन्याय किया है । उसी प्रकार जैन दर्शन के अनेकान्तवाद के साथ स्वामी शंकराचार्य और भास्कराचार्य प्रभृति विद्वान् भी सचमुच अन्याय ही कर रहे हैं। इसका कारण परस्पर का दृष्टि भेद है। जिस दृष्टि को लेकर जैन दर्शन में अनेकान्तवाद के सिद्धान्त की कल्पना की गई है उसी दृष्टि से अगर शंकराचार्य प्रभृति विद्वान उसकी आलोचना करते तब तो उनका प्रतिवाद विचारपूणे कहा अथवा माना जाता परन्तु वस्तु स्थिति इसके सर्वथा विपरीत है । अर्थात्-जैनदर्शन का अनेकान्तवाद कुछ और है और शंकर स्वामी उसको किसी और रूप में ही कल्पना कर रहे हैं इस दृष्टि भेद के कारण ही इनका परस्पर में विरोध है । उदाहरणार्थ शांकर भाष्य की निम्नलिखित पंक्तियों को देखें ब्रह्मसूत्र २।२।३३ । के भाष्य में शंकर स्वामी लिखते हैं" "नोकस्मिन् धर्मिणि युगपत् सदसत्वादि विरुद्ध धर्म समावेशः सम्भवति शीतोष्णवत्' । शीत और उष्णता की भांति एक धर्मी में परस्पर विरोधी सत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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