Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 215
________________ ( १६६ ) ही, एकत्व, अनेकत्व और नित्यानित्यत्व आदि धर्म भी एक स्थान में नहीं रह सकते । परन्तु जैनदर्शन इसके विरुद्ध ऐसा हो मानता है अर्थात् परस्पर विरुद्ध धर्मों की भी वह एक स्थान में स्थिति का अंगीकार करता है । अतः उसका यह मंतव्य सर्वथा अनुभद विरुद्ध और युक्ति विकल होने से असंगत एवं त्याज्य है "असंगतमिद मार्हतंमतम्" [ शां० भा० ] __शंकराचार्य प्रमृति विद्वानों का प्रस्तुत विषय में यही मत है इसी के अनुसार उन्होंने जैन दर्शन के अनेकान्त वाद का बड़ी प्रौढ़ता से खंडन किया है, परन्तु हमारे ख्याल में उक्त विद्वानों का इस रूपमें अनेकान्त वाद या स्याद्वाद का खंडन करना उसके साथ [अनेकान्त वाद के साथ] सरासर अन्याय करना है। जैनदर्शन का अनेकान्तवाद वा स्याद्वाद ऐसा नहीं जैसा कि शंकराचार्य आदि विद्वानों ने समझा अथवा माना है किन्तु उससे विलक्षण है । यदि स्याद्वाद का यही वास्तव स्वरुप होता जो कि शंकराचार्य प्रभृति विद्वानोंने प्रतिवादके लिये कल्पना किया है तो उनके प्रतिवाद का अवश्य कुछ मूल्य पड़ता परन्तु वस्तुस्थिति इसकेसर्वथा विपरीत है, अर्थात्-जैनदर्शन के स्याद्वाद का वह स्वरूप ही नहीं इसलिये प्रतिपक्षी विद्वानों का प्रतिवाद एक तटस्थ विचारक के सामने कुछ मूल्य नहीं रखता। [प्रतिपक्षी विद्वानों के प्रतिवाद की तुलना] अनेकान्त वाद का अथवा स्याद्वाद का जो स्वरूप जैन दर्शन ने प्रतिपादन किया है उसके साथ यदि प्रतिवादी दल के प्रतिवाद का मिलान किया जाय तो वह एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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