Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 217
________________ ( १६८ ) अनुसार ही अनेकान्तवाद के प्रतिद्वंद्वी विद्वानों ने उसका खंडन किया है या उसका यथामति स्वरूप कल्पना करके प्रति - वाद किया है ? जहां तक हमने जैन दर्शन का अभ्यास किया है। वहां तक हम यह निःशंकतया कह सकते हैं कि "परस्पर विरुद्ध धर्मों का एक स्थान में विधान करना" इस प्रकार का स्याद्वाद का स्वरूप जैन दर्शन को अभिमत नहीं । किन्तु अनन्त धर्मात्मक वस्तु में अपेक्षा कृत भेद से जो जो धर्म रहे हुए हैं उन को उसी उसी अपेक्षा से वस्तु में स्वीकार करने की पद्धति को जैन दर्शन, अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद के नाम से उल्लेख करता है X जो पदार्थ जिस रूप से सत् है उसको उसी रूप से असत् एवं जिस रूप से जो नित्य है उसको उसी रूप से अनित्य, न तो जैन दर्शन कहता अथवा मानता है और नाही इस प्रकार की सम्मति देता है । अथवा इस बात को इस प्रकार समझिये कि, एक ही पदार्थ में जिस रूप से सत्व है उसी रूप से उसमें असत्व भी है तथा जिस रूप से पदार्थ में नित्यत्व है उसी रूप से उसमें अनित्यत्व भी है इस प्रकार की मान्यता जैन दर्शन की नहीं है । जैन विद्वानों ने इस भ्रम को बड़े ही स्पष्ट शब्दों में दूर x नह्येकत्र नाना विरुद्ध धर्म प्रतिपादकः स्याद्वादः किन्तु अपेक्षाभेदेन तदविरोध द्योतक स्यात्पद समभिव्याहृतवाक्यविशेषः स इति " ( उ० यशोविजय न्यायखंड खाद्य श्लो० ४२ की व्याख्या) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236