Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 221
________________ ( १७२ ) [ उक्त विषय का विशेष स्पष्टीकरण ] जैन दर्शन में वस्तु तत्व का विचार उसके [ वस्तु के ] स्वरूप के अनुसार किया है । लौकिक अनुभव से वस्तु का जो स्वरूप प्रतीत हो उसके अनुसार किया गया विचार ही युक्ति युक्त कहा वा माना जा सकता है । वस्तु स्वरूप का विचार करते हुये अनुभव से वह एकान्ततया सत् [ भावरूप] किम्बा असत् [ अभाव रूप] प्रतीत नहीं होती, किंतु अनेकान्त-सत् असत्-भाव और अभाव रूप से ही उसकी प्रतीति होती है। अतः वस्तु को सर्वथा सत् [ भावरूप] किम्बा असत [अभावरूप] ही न मानकर, सत् असत् - भाव -अभाव उभय रूप से ही स्वीकार करना युक्तियुक्त और प्रमाण के अनुरूप है । परन्तु वस्तु [ पदार्थ ] जिस रूप से सत् [ भावरूप] उसी रूप से असत् ( अभाव रूप ) भी है ऐसी मान्यता को जैन दर्शन में स्थान नहीं दिया गया, जैन दर्शन एक ही रूप से वस्तु को सत् और असत् नहीं मानता किंतु सत् वस्तु को वह उसके स्वभाव की अपेक्षा कहता है और असत् [ अभाव रूप ] अन्य वस्तु की अपेक्षा से कथन करता है। इस तत्व के स्पष्टी करणार्थ ही जैन दर्शन में स्वरूप और पररूप इन दो शब्दों का विधान किया है । स्वरूप की अपेक्षा वस्तु में सत्व और पर रूप की अपेक्षा असत्व, एवं अपेक्षा कृत भेद से वस्तु का अनेकान्त सत्-असत् भाव, अभाव, नित्य, अनित्य स्वरूप ही जैन दर्शन को अभिमत है इस विषय की चर्चा करते हुये " + एवं स्वतः परतो वानुवृत्तिव्यावृत्याद्यनेक शक्ति युक्तो सादादि त्रैलक्षण्य लचण मनेकान्तात्मकं जगत् । (शा०वा०स०स्त०७पृ०२२२कल्पलता टीका) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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