Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 219
________________ ( १७० ) फिर उसकी उसी निमित्त से प्रतारणा करना, कहां तक न्यायसंगत है, इसका विचार पाठक स्वयं करें। हमारे ख्याल में तो यह प्रतिवाद जैन दर्शन के अनेकान्तवाद का नहीं जो कि शंकराचार्य प्रभृति विद्वानों ने किया है। किन्तु एक ही रूप से निरपेक्षतया पदार्थ को सत् असत् उभय रूप मानने वालों का है-क्या जाने, ऐसा भी कोई मानते होंगे ? "भिन्नमातिहिलोकः" संसार में अनेक विचार के लोग विद्यमान हैं उनके लिये शंकराचार्य प्रभृति का कथन भले ही उपयुक्त समझा जाय । इस विषय में तो जैन दर्शन भी उनके-प्रतिपक्षी विद्वानों के साथ सहमत है। [जैनदर्शन किस प्रकार से वस्तु को सदसत् रूप मानता है ] उपर्युक्त विवेचन से यह प्रमाणित हुआ कि शंकर स्वामी प्रभृति विद्वानों ने जिस सिद्धान्त का खण्डन किया है-अर्थात् जिसको असंगत या उन्मत्त प्रलाप बतलाया है वह सिद्धान्त वास्तव में जैन दर्शन का सिद्धान्त नहीं अतएव उनका यह प्रतिवाद जैन-अनेकान्तवाद का प्रतिवाद नहीं कहा जा सकता और यह भी सिद्ध हुआ कि शंकराचार्य आदि विद्वानों को जिस प्रकार यह मत-[पदार्थ एक ही रूप से सत् असत् उभय रूप है] असंगत प्रतीत हुआ उसी प्रकार जैन दर्शन भी इससे सहमत नहीं है अर्थात् वह भी उक्त मत को असंगत ही मानता है। इसलिये यह बात भलीभांति सावित होगई कि प्रतिपक्षी विद्वानों ने जो स्वरूप कल्पना करके अनेकान्तवाद का खण्डन किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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