Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 226
________________ ( ३ ) होने से भावाभाव उभय रूप से ही वस्तु को माननाचाहिये। (हेमचन्दाचार्य) इस सारे विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि जैन दर्शन को वस्तु सत् और असत् उभयरूप इष्ट है परंतु एक ही रूप से नहीं किंतु भिन्न रूप से अर्थात् सत्व, स्वरूप से असत्व, पर रूप से । अतः प्रतिवादि विद्वानों ने जो एक ही रूप से सत्व और असत्व की मान्यता स्थिर करके जैन दर्शन पर विशेष का आक्षेप किया है वह उचित नहीं क्योंकि जैन दर्शन, वस्तु में एक ही रूप से सत्वासत्व का अंगीकार नहीं करता इसलिये प्रतिपक्षी विद्वानों का प्रतिवाद जैन दर्शन के अनेकांतवाद के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। महामति कुमारिल भट्ट ने वस्तु के यथार्थ स्वरूप को खूब समझा और उन्होंने श्लोक वार्तिक में स्पष्ट लिख. दिया कि "खरूप पररूपाभ्यां नित्यं सद सदात्मके। वस्तुनि ज्ञायते कैश्चिद्रूपं किंचित् कदाचन ॥ (पृ० ४७६) ६-भावाभात्मकत्वाद्वस्तुनो निर्विषयोऽभावः । १।१।१२ नहि भावक रूपं वस्तु इति विश्वस्य वैरूप्य प्रसंगात् । नाप्यभावक रूपं नीरूपत्व प्रसंगात् । किन्तु स्वरूपेणसत्वात् पररूपेण चा सत्वात् भावाभाव रूपं 'वस्तु तथैव प्रमाणां प्रवृतेः। (प्रमाण मीमांसा पृ० ६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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