Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 216
________________ ( १६७ ) दूसरे से कुछ भी सम्बन्ध रखता हुआ प्रतीत नहीं होता। बहुधा मतान्तरीय विद्वानों की आजतक यही धारण रही और है कि परस्पर विरुद्ध धर्मों को एक स्थान में स्वीकार करने का नाम अनेकान्तवाद या स्याद्वाद है। परन्तु क्यों ? और कैसे ? इस पर किसी ने भी अधिक लक्ष नही दिया इसी कारण जैनदर्शन के स्याद्वाद पर प्रति पक्षी विद्वानों ने अनेक तरह के मिथ्या उचितानुचित आक्षेप किये हैं और यह भी सत्य है कि-उन आक्षेपों का उत्तर देते हुए कतिपय जैन विद्वानों ने भी कहीं कहीं पर भाषा समिति के सर्वोच्च अधिकार में हस्ताक्षेप कर दिया है ? इस कदर मनोमालिन्य का कारण तत्व विषयणी अज्ञानता और बढ़े हुए एकान्त दृष्टि भेद के सिवाय और कुछ नहीं । अस्तु कुछ भी हो, अब यहाँ विचार इस बात का करना है कि जैन दर्शन के स्याद्वाद या अनेकान्तवाद का वास्तव स्वरूप क्या है अर्थात् पस्पर विरोधी धर्मों की सत्ता को एक अधिकरण में जैनदर्शन मानता है या कि नहीं ? अगर मानता है तो किस रूप में ? तथा उसके इस मन्तव्य के - अतश्चानिर्धारितार्थ शास्त्रं प्रणयन्मत्तोन्मत्त वदनुपादेयवचनः स्यात् (शां० भा० पृ० ४८३) "तत्रैव शास्त्रं प्रणयन्नुन्मत्त तुल्य स्तीर्थकरः स्यात्" (भास्कराचार्य) * दूषयेदज्ञएवोच्चैः स्याद्वादं नतु पंडितः । अज्ञ प्रलापे सुज्ञानां न द्वेषः करुणैवतु ॥१४॥ (मध्या० उ० अधि० १ उ० यशो विजय) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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