Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 214
________________ ( १६५ ) हुआ कि वह कथंचित् सत् असत् उभय (x) रूप है ]-इस प्रकार सत्, असत् का आपस में अत्यन्त विरोध होने से एक ही पदार्थ को सत् असत् उभयरूप मानना कभी युक्ति युक्त नहीं है । इसके सिवाय, एक अनेक, नित्य, अनित्य और व्यतिरिक्ता-व्यतिरिक्तत्व आदि धर्मों के सम्बन्ध में भी यही न्याय समझ लेना चाहिये । - अर्थात्--जैसे एक ही पदार्थ, सत् असत् उभयरूप नहीं हो सकता उसी प्रकार उसको एक, अनेक, नित्य अनित्य और भिन्न, अभिन्न भी नहीं मान सकते । अथवा यूं कहिये कि जिस प्रकार सत्व असत्व का एक धर्मी में युगपत-समावेश नहीं होता ऐसे ४ शंकर स्वामी ने जगत् में आपेक्षिक सत्यता का स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है देखो उनका तैतिरीय उपनिषद् का भाष्य "इहपुनर्व्यवहार विषय मापेक्षिकं सत्यं मृगतृष्णिका वन्ततापेक्षया उदकादि सत्यमुच्यते । २ । ६ । V तथा-(शंकर ने अलीक और असत्यमें भेद माना है । आकाश कुतुम मृगतृष्णा प्रभृति अलीक पदार्थ हैं इन पदार्थों की तुलना में जगत् को शंकर ने सत्य कहा है इसलिये शंकर मत में जगत् अलीक नहीं शक्ति भी मिथ्या नहीं, तैतिरीय भाष्य देखो, केवल ब्रह्मा के सन्मुख ही जगत् असत्य कहा गया है । देखो. (उपनिषद् का उपदेश भाग • हिन्दी अनुवाद पृ० ६. लेखक पं० कोलिकेश्वर भट्टाचार्य एम० ए० विद्यारत्न) - * ऐतेनैकानेक नित्यानित्य व्यतिरिक्ता व्यतिरिक्ताश नेकान्ताभ्युपगमा निराकृता मन्तव्याः (शांकरभाष्य) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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