Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 212
________________ ( १६३ ) और असत्व आदि धर्मों का एक काल में समावेश (स्थिति) नहीं हो सकता अर्थात् जिस प्रकार शीत और उष्णता ये दो विरुद्ध धर्म एक काल में एक जगह पर नहीं रह सकते उसी तरह सत्व और असत्व का भी एक काल में एक स्थान पर रहना नहीं बन सकता। इसलिये जैनों का सिद्धान्त ठीक नहीं है "नायमभ्युपगमोयुक्त (महामति भास्कराचार्य ने आपने भाष्य में इसी बात को और प्रकार से लिखा है परन्तु आशय में फर्क नहीं है)। भाष्य के व्याख्याकारों ने यहां इस प्रकार वर्णन किया है। "जो वास्तव में सत् है वह सदा और सब रूप से सत् ही रहेगा, जैसे आत्मा और जिसमें कभी और किसी रूप से सत्व की उपलब्धि होती है वह वस्तुतः सत् नहीं उसमें जो सत्व है वह केवल व्यावहारिक है अर्थात् व्यवहारमात्र को लेकर उसको सत् कहा जायगा परमार्थ से वह सत् नहीं जैसे प्रपंच" (वाचस्पतिx)। जो सत् है वह सदा सत् ही रहेगा कभी असत् नहीं हो सकता, जैसे "ब्रह्म" और जो असत् है वह सदा असत् हो * तत्रेद मुच्यते नैकस्मिम् धर्मिण्यसम्भवात कथ मेकोभावोऽस्ति च नास्तिच स्याद्यदा स्तीत्यवधार्यते विरोधात् २।२।३३ (का भाष्य) - "एतदुक्तं भवति--सत्ययदस्ति वस्तुत स्तस्सर्वथा सर्वदा सर्वत्र सर्वात्मना निर्वचनीयेनरूपेणास्त्येव न नास्ति, यथा प्रत्यगात्मा । यत क्वचित् कथंचित् केन चिदात्मनास्तीत्युच्यते, यथा प्रपंच: तद् व्यवहारतो न तु परमार्थतः" (भामति) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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