Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 209
________________ ( १६० ) ज्ञान ही नहीं था। किसी मत के अमुक एक सिद्धान्त के विषय में भ्रम का हो जाना छद्मस्थ पुरुष के लिये अनिवार्य है। [शंकर स्वामी और भास्कराचार्य ] स्वामी शंकराचार्य और भट्ट भास्कर के सिद्धान्त में बहुत अन्तर है, शंकरस्वामी पूरे अभेदवादी, और भास्कराचार्य पूर्णतया भेदाभेद वाद के अनुयायी हैं । शंकरस्वामी के मायावाद का (ग)-जीवास्तिकायस्त्रेधा-वद्धोमुक्तो नित्यसिद्धश्चेति । तत्रार्हन्मुनिर्नित्य सिद्धः इतरे केचत् साधनैर्मुक्ताः अन्ये वद्धा इति भेदः । पुद्गलास्तिकायः षोढा-पृथिव्यादि चत्वारि भूतानि स्थावरं जंगमंचेति [ आनन्दगिरिः ] (घ)-जीवास्तिकायस्त्रिविधः कश्चिज्जीवो नित्य सिद्धोर्ह न्मुख्यः । केचित्साम्प्रतिकमुक्ताः केचत् वद्धा इति । पुद्गलास्ति कायः षोढा-पृथिव्यादीनि चत्वारि भूतानि स्थावरं जंगमंचति [ रत्नप्रभा व्याख्या ] इन ऊपर दिये गये पाठों में (१) जीव को अनन्त प्रवयवों वाला कहना और (ख० ग० घ० ]-जीवस्तिकाय को वह मुक्त और नित्य सिद्ध, कहकर अर्हन को नित्य सिद्ध और बाकी दो को मुक्त मौर बद्ध बतलाना, एवं पुद्गलास्तिकाय को पृथिवी प्रादि चार भूत और स्थावर तथा जंगम भेद से कै प्रकार का कथन करना जैन सिद्धान्त के अनुसार नहीं है । इनका इस रूप में किसी जैन ग्रंथ में उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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