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नभेदः । तस्मात् सर्वमेका नेकात्मकं नात्यन्तमभिन्नं भिन्नंवा । तदेवं प्रत्यक्षमनुमानागमश्चास्मत्पचे प्रमाणत्रयंत्वत्पक्षे न किंचिदस्तीति विशेषः ।" ( पृ० १०१ ) :
अवस्था और अवस्था वाले का आपस में अत्यन्त भेद नहीं है । " शुक्ल पट" यहाँ पर शुक्ल और पट रूप धर्मधर्मी, आपस में अत्यन्त भिन्न नहीं हैं किन्तु एक हैं । संसार में कोई द्रव्य निर्गुण नहीं और कोई गुण द्रव्य बिना का ( स्वतंत्र ) नहीं किन्तु द्रव्य और गुण साथ ही उपलब्ध होते हैं । यह उपलब्धि ही भेदाभेद की व्यस्थापक है तथा कार्यकारण का भेदाभेद अनुभव सिद्ध है । अभेद स्वरूप ही भेद है। जैसे समुद्र रूप से जो ( जल का ) अभेद प्रतीत होता है वही तरंग रूप से भिन्न २ देखा जाता है। तरंगादि की कहीं पाषाणादि में उपलब्धि नहीं होती अतः वे सब जल की ही शक्तियें हैं। शक्ति और शक्ति वाले का भेदाभेद उपलब्ध ही है । इसलिये सभी पदार्थ एक और अनेक तथा परस्पर में न तो अत्यन्त भिन्न हैं और न अभिन्न किन्तु भिन्नाभिन्न हैं । इस बात को सिद्ध करने के लिये हमारे पास तो प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीनों ही प्रमाण उपस्थित हैं आपके पास कुछ भी नहीं इत्यादि ।
इसके अतिरिक्त भास्कराचार्य ने जीव ब्रह्म का जो भेदाभेद माना है उसको भी आप सर्वथा यौक्तिक ही नहीं मानते किन्तु श्रुति सिद्ध भी बतलाते हैं । आपके भाष्य का वह स्थल भी द्रष्टव्य है आप कहते हैं कि यह कभी नहीं हो सकता कि
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