Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 191
________________ ( १४२ ) सर्वेश्वरः सर्वसाक्षी, सर्वत्रास्ति फलप्रदः । शरीरं द्विविधं शम्भो र्नित्यं प्राकृतमेव च ॥ ५ ॥ नित्यं विनाश रहितं नश्वरं प्राकृतं सदाx | भावार्थ - ब्रह्म यद्यपि एक है परन्तु गुण भेद से उसके स्वरूप में भेद है इस लिये ब्रह्म रूप वस्तु दो प्रकार की है । एक सगुण दूसरी निर्गुण, माया संयुक्त तो वह ब्रह्म सगुण कहलाता है और माया रहित को निर्गुण कहते हैं । संसार को उत्पन्न करने वाली, भगवान् को इच्छा शक्ति हो प्रकृति है । वह भगवान् से भिन्न नहीं है । उस प्रकृति से संयुक्त हुआ भगवान् सगुण, शरीरी अथच प्राकृत कहलाता है, उसमें निर्लिप्त हुआ वह निर्गुण अशरीरी और निरंकुरा - स्वतन्त्र - माना जाता है । परमात्मा के नित्य अथच प्राकृत ये दो स्वरूप हैं । उनमें जो नित्य शरीर है वह तो अविनाशी -विनाश रहित है और जो प्राकृत है, उसका विनाश हो जाता है । ब्रह्म वैवर्त पुराण का यह लेख भगवान् को सगुण, निर्गुण शरीरी, अशरीरी मित्य और प्राकृत रूप से बोधन करता हुआ उसमें अनेक रूपता को सिद्ध कर रहा है परन्तु यह अनेक रूपता अपेक्षाकृत भेद का आश्रय लिये विना किस प्रकार संगत हो सकती है ? जो सगुण है वह निर्गुण कैसे ? जो शरीरी वह अशरीरी किस प्रकार कहा जाय ? क्योंकि इनमें विरोध है । तब x ( ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण खण्ड अध्याय ४३ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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