Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 196
________________ इन श्लोकों का अभिप्राय यह है कि-मनीषी अर्थात् विद्वान् लोग सत्व (प्रकृति प्रधान ) और पुरुष [आत्मा] इन दो पदार्थों का अंगीकार करते हैं। उनमें भी कितने एक विद्वान् सत्व और पुरुष को सर्वथा एक वा अभिन्न मानते हैं । परन्तु यह मत ठीक नहीं है । एवं कई एक सत्व और पुरुष को सर्वथा भिन्न स्वीकार करते हैं । यह सिद्धान्त भी विचारपूर्ण नहीं है । टीकाकार, इस कथन का उपपादन इस प्रकार करते हैं । पुरुष की तरह स्वच्छ और पुरुष का उपकारी होने से, "सत्व पुरुष से यदि सत्वं ततः पुरुषात् पृथगन्यत्-भूतं नित्यनिवृतं च स्यात्तर्हि मुक्तमप्यात्मानं न जह्यात् भूतत्वे तस्य निरन्वय नाशायोगात् ; तस्मादनिर्मोक्षप्रसक्तेः, इदं मत मविचारितम् । एकत्वपक्षोपि प्रत्युक्तएव, कर्तृत्वादेर्वास्तवत्वे धर्मनाश मंतरेणानिवृत्तेनैरात्म्यं । अनिर्मोक्षोवा प्रसज्येत इतिभावः सिद्धान्तमाह-" पृथग्भावश्चविज्ञेयः सहजश्चापितत्वत:" सत्व पुरुषयोः समुद्रतरंगयोरिव शब्दतः प्रतीतिश्चपृथग्भावोऽस्ति । सत्वंच समुद्रे तरंग इव पुरुषे सहजम् । एवं विलीन तरंगस्येव मुक्तसत्वस्य पुनरुत्पत्त्ययोगानानिर्मोक्षइति । कल्पित भेदेन संसारयात्रानिर्वाहः, अकल्पिताभेदेन मोक्षोपपत्तिरित्यर्थः । एवमपि सत्वपुरुषयो रेकजात्यापत्तेजड़ा जड़विभागो न स्यादित्याशंक्याह-तथैवेति । नयः युक्तिः यथाउदम्बरफलोदरे वाह्यस्यान्यस्य प्रवेशायोगात्तदवयव एव मशकदेहस्ततो विजातीयः सन्नाविर्भवति । एवं चिद्वलासएव सत्वं ततः पृथग्भूय जड़त्वेनाविर्भवति । [इति टीकायां नीलकंठाचार्यः ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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