Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 163
________________ (११४ ) उक्त लेख से जो अभिप्राय प्रकट होता है वह स्फुट है। चिदचिद्विशिष्टब्रह्म, विशिष्ठ रूप से-समुदायरूपसे-एक अथवा अभिन्न है तथा विशेषण और विशेष्यरूप से अनेक अथवा भिन्न है। यही विशिष्टाद्वैत का तात्पर्य प्रतीत होता है। इससे सिद्ध हुआ कि श्रीकंठाचार्य भी वस्तुतः अनेकान्तवाद के विरोधी नहीं किन्तु शब्दान्तर से उसके प्रतिपादक हैं। [ वल्लभाचार्य का तत्वार्थ प्रदीप ] श्रीवल्लभाचार्य, शुद्धाद्वैत मत के संस्थापक हैं आपने ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य लिखने के सिवाय "तत्वार्थ प्रदीप नाम का छोटा सा एक सटीक ग्रन्थ लिखा है। उसके देखने से मालूम होता है कि आप ब्रह्म में सभी विरोधी गुणों को स्वीकार करते हैं। इससे सर्वथा तो नहीं परन्तु किसी अंश में तो अनेकान्तवाद का समर्थन होता है । फर्क सिर्फ इतना है कि अनेकान्तवाद विरोधी धर्मों का एक पदार्थ में अविरोध, अपेक्षा दृष्टि से मानता है और वल्लभाचार्य ने ईश्वर के विषय में अपेक्षा की कुछ आवश्यकता नहीं मानी । वे तो स्पष्ट शब्दों में विरोधिगुणों को सत्ता को ईश्वर में स्वीकार करते हैं । यथा सर्व वादानवसरं नाना वादानरोधिच । अनन्त मूर्ति तद्ब्रह्म कूटस्थं चलमेवच ॥७३॥ विरुद्ध सर्व धर्माणां आश्रयं यक्लयगोचरम् ॥ (पृ० ११५) तत्र ब्रह्मणि विरुद्ध धर्माः सन्तीति ज्ञापनार्थमाह-अनन्त मूर्ति-इति । अनन्ता मूर्तयोयस्य । ब्रह्म एकं व्यापकंच तेना नेकत्व मेकत्वंच निरूपितं एवं गुण विरोध मुक्त्वा क्रिया विरोध माह-कूटस्थं चलमेवेति [प्रकाश व्याख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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