Book Title: Darshan aur Anekantavada
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 176
________________ ( १२७ ) माया से ही पूछना चाहिये ? अथवा जिस सर्वज्ञ परमात्मा की वह शक्ति मानी जाती है उससे पूछना चाहिये ? कि उसने खशक्ति भूत माया का इस प्रकार का स्वरूप क्यों बनाया जो कि वह (माया ) ब्रह्म की आत्म भूत होते हुये भी उससे अलग और भिन्न होते हुये भी अभिन्न रूप से रहती है। इसका उत्तर हम कुछ नहीं दे सकते कि अग्नि में दाहशीलता क्यों है पदार्थों का स्वरूप ही ऐसा है कि वे अनेकानेक विरोधी धर्मों की सत्ता को सापेक्षतया अपने में धारण किये हुये हैं । माया रूप पदार्थ भी इसी प्रकार का है उसमें भी अपेक्षाकृत भेद दृष्टि से भेदाभेद दोनों ही रहते हैं । तथा भेद और अभेद के विषय में जो विरोध की सम्भावना की जाती है वह केवल शाब्दिक है इनमें (भेद और भभेद में ) आर्थिक विरोध बिलकुल नहीं है। तब माया को अनिर्वचनीय क्यों कहा ? इसका उत्तर यही है कि उसका-माया का-एकान्ततया-सर्वथा भाव रूप से वा अभाव रूप से निर्वचननहीं हो सकता अथवा यूं कहिये कि सर्वथा भेद रूप से अथवा अभेद रूप से ही उसका कथन नहीं किया जा सकता इसलिये वह माया अभिर्वचनीय कहलाती है। बौद्धों के परम सत्य के विषय में भी यही न्याय समझना चाहिये । उसमें भी एकान्ततया, नित्यानित्यत्व आदि धर्मों का निषेध अभिप्रेत है अन्यथा परम सत्य पदार्थ की सत्ता ही साबित नहीं हो सकती । इसलिये . . इनका एकान्त भेद भी नहीं बन सकता और अभेछ भी सिद्ध नहीं होता इसलिये यहां पर तो विरोध अवश्य है। भेदाभेद का सह अवस्थानतो अनुभव सिद्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236