Book Title: Bina Nayan ki Bat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 19
________________ मृत नहीं, मृत्युंजय हों मेरे प्रिय आत्मन्! दमिश्क की एक दन्तकथा है । एक चालीस साल का आदमी राजधानी के चौराहे पर खड़ा, नौटंकी देख रहा था। हजारों की भीड़ थी। नाटकका आनन्द ही कुछ अनेरा था । नाटक देखते-देखते ही, उस आदमी के कंधे पर किसी के हाथ का स्पर्श हुआ । उसने अपने अगल-बगल में देखा । कहीं कोई ऐसा दिखाई नहीं दिया, जिसने उसे हाथ का स्पर्श किया हो। वह फिर नाटक देखने लगा। किसी ने फिर हाथ का स्पर्श किया। वह चिल्लाया। पूछा, कौन है ? धीरे से आवाज आई। 'मैं तुम्हारी मौत हूँ ।' मेरी मौत! वह चौंका। मौत का नाम सुनकर आदमी का चौंकना स्वाभाविक है। मौत ने कहा, अभी तो मैं सिर्फ तुम्हें चेताने के लिए आई हूँ। कल शाम को मैं तुम्हें लेने आऊंगी। उसके लिये तो नाटक हवा हो गया । वह घबड़ाया हुआ भागा और सीधा अपने सम्राट के पास गया । सम्राट को सारी बात बताकर कहा कि कल मेरी मौत मुझे लेने आने वाली है। सम्राट, मैंने जीवन भर आपकी सेवा की है । इसलिए आज मैं आपसे आखरी चीज मांगता हूँ। आप मुझे अपना स्वयं का घोड़ा दे दें, ताकि मैं इस राजधानी को छोड़कर एक दिन और एक रात में ही सैकड़ों मील दूर जा सकूं। मौत से बच सकूं। सम्राट ने घोड़ा दे दिया। वह निरन्तर घोड़ा दौड़ाता रहा। सारी रात, सारा दिन दौड़ाया और जब दौड़ते-दौड़ते सांझ हो गई अगले दिन की, तो वह रुका। उस समय उसके दिल में एक प्रसन्नता थी, एक खुशी थी, एक आत्म-सांत्वना थी कि मौत जहाँ कल उसे मिली थी, वह स्थान यहाँ से पचासों मील पीछे है । मैं बहुत दूर चला आया हूँ। अब मौत यहां नहीं आ सकती । वह घोड़े से नीचे बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / १४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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