Book Title: Bina Nayan ki Bat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 74
________________ स्वीकार से ही प्रतिक्रिया की तरंग पैदा होती है। तालाब में फेंकी गई कंकरी को जैसे ही तालाब का जल ग्रहण करता है, प्रतिक्रिया स्वरूप उस जल में लहर-पर-लहर, तरंग-पर-तरंग उत्पन्न होती है और पूरा तालाब हलचल से भर जाता है । गाली को स्वीकार करो तो क्रोध की लहरें उठेंगी, सौंदर्य को स्वीकार करो तो वासना जगेगी, प्रशंसा को स्वीकार करो तो अहंकार जगेगा और निंदा को स्वीकार करो तो नफरत जगेगी । स्वीकार करते ही अन्तरंग में तरंग पैदा होगी। मन के भीतर की इस तरंग का नाम ही 'कर्म' का बन्धन और वृत्ति का निर्माण है। जैसे ही प्रतिक्रिया की लहर उठी, मनुष्य के प्रारब्ध में कर्म की एक और रेखा का निर्माण हो जाता है । हाथ की रेखाएं तो जन्मजात होती हैं या दो-चार साल में बदलती हैं लेकिन कर्म-बन्धन की रेखाओं का निर्माण और ध्वंस तो पल - प्रतिपल होता जा रहा है । स्वीकार और अस्वीकार में ही सारी झंझट है, इसलिए स्वीकार भी मत करो, अस्वीकार भी मत करो। जो जैसा कर रहा है, वैसा उसे करने दो। जिसके द्वारा जैसा होना है, वैसा हो रहा है । तुम तो इस होने न होने, स्वीकार - अस्वीकार के बीच में से वैसे ही निकल जाओ जैसे दो किनारों के बीच में से नदी का पानी निकल जाता है। नदी का पानी न किनारों को स्वीकार करता है, न ही अस्वीकार, वह तो बस बह रहा है। बहता चला जा रहा है । न इस किनारे से, न उस किनारे से, वह किसी से भी प्रभावित नहीं होता, सिर्फ बहता है । सहज रूप में बहना ही उसका व्यक्तित्व है । प्रवाह ही उसका जीवन है । ठीक इसी तरह मनुष्य को भी निकल जाना होता है, क्रोधित और प्रफुल्लित वातावरण के बीच से, अप्रभावित रहकर। जैसे जंगल से रेलगाड़ी गुजर जाती है, ठीक इसी तरह आदमी को दुनियादारी के दंगल से गुजर जाना होता है । आप दो संत - एक वृद्ध और एक युवक, एक नदी के किनारे पहुँचे । नदीं में पानी था। पार जाना था, तट पर कोई नौका नहीं थी । नदी किनारे एक युवा महिला भी बैठी थी, उसे भी नदी पार जाना था । उसने वृद्ध संत से कहा नदी को पार करेंगे। मुझे भी दूसरे किनारे जाना है । मुझे तैरना नहीं आता है । यदि आप मेरा हाथ पकड़कर ले चलें, तो मैं भी आपके सहारे - सहारे नदी पार करके अपने घर पहुँच जाऊंगी। वृद्ध सन्त ने कहा - हम महिलाओं को नहीं छूते । नारी का स्पर्श साधु के लिए वर्जित है । अतः मैं तुझे नदीं पार नहीं करा सकता । यह कहकर वृद्ध सन्त आगे बढ़ गया और नदी पार करने लगा। दूसरे Jain Education International - For Personal & Private Use Only करें क्रोध पर क्रोध / ६६ www.jainelibrary.org

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