Book Title: Bina Nayan ki Bat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 66
________________ स्वर्ग में बदलता चला जाएगा। जिन दिन मन से संकल्प-विकल्प दोनों ही नेस्तनाबूद हो जाएंगे उस दिन जीवन में पहली बार मोक्ष की किरण उतरेगी। मरने के बाद हमें निर्वाण मिले या न मिले, हम जहन्नुम में जाएं या जन्नत में, लेकिन जीते जी अपने में मोक्ष का अनुभव करो, जीते जी अपने भीतर जीवन-मुक्ति का रसस्वादन करो। जीते जी ही निजात ईजाद हो जानी चाहिये, मुक्ति का बोध हो जाना चाहिए। यह मत सोचो कि पंचमकाल में क्या होगा। अगर तुम कर सकते हो तो इस समय भी सब कुछ होता है। अगर अनुभव के रास्ते से गुजरना चाहो तो बहुत कुछ सम्भावनाएं हैं। अभी तो बूंद समुद्र में समा रही है, बाद में समुद्र ही बूंद में समा जाएगा। अगर हमारी भाव-दशा गहरी है और हम उसमें और गहरे उतरते जा रहे हैं तो हम गृहस्थ हों या मुनि इससे क्या फर्क पड़ता है। सामान्यतया हम लोग मुनि उसे कहते हैं, जिसने औरत को छोड़ दिया है, बच्चों को छोड़ दिया है, धन-दौलत और संसार को छोड़ दिया है और गृहस्थ उसे कहते हैं, जिसके पत्नी है, पति है, बच्चे हैं, धन-दौलत है, संसार है। यह तो ऊपर की बातें हैं। ऐसे त्याग करने से आदमी भीतर से बदल नहीं जाता। कल्पना करो, हिटलर न तो कभी रात को खाता था, न कभी झूठ बोलता था, न उसने कभी सिगरेट पी, न कभी तम्बाकू खाई। ऊपर से तो वह पक्का जैनी था। यदि इन उसूलों से आदमी को नापोगे तो हिटलर तुम जैसा, शायद तुमसे भी पक्का जैनी था लेकिन क्या आप उसे जैनी कहने के लिए तैयार होंगे? आप रात को खाते हैं, सिगरेट पीते हैं, तम्बाकू नहीं छोड़ पाते, शायद शराब भी पीते होंगे। हिटलर को इनमें से एक भी लत नहीं थी। वह इन सब मामलों में आपसे ज्यादा शरीफ था, लेकिन फिर भी आप उसे जैनी मानने को तैयार नहीं होंगे। वह भीतर से इतना गिरा हुआ था, उसमें इतनी क्रूरता और हिंसा भरी हुई थी कि जिसका एक अंश भी आप में नहीं है। इसलिए आप हिटलर से श्रेष्ठ हैं, इसलिए आप हिटलर की अपेक्षा ज्यादा पक्के जैन हैं। मुनि वह है जिसका मन तो टिका हुआ है लेकिन पांव दिन-रात चलते हैं। गृहस्थ वह है, जिसके पांव तो टिके हुए हैं लेकिन मन दिन-रात चलता है। मुनि वह है जिसका मन टिका हुआ है लेकिन गृहस्थ के पांव टिक गये हैं एक परिवार में, एक स्थान में, सम्बन्धों के एक सीमित दायरे में, एक उपाश्रय में, एक मन्दिर में। लेकिन जिसका मन टिक गया है, चाहे पांव चल रहे हैं, हाथ चल रहे मन की चैतन्य-यात्रा / ६१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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