Book Title: Bina Nayan ki Bat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 71
________________ करें, क्रोध पर क्रोध मेरे प्रिय आत्मन्! भगवान के जीवन की एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना है। भगवान उन दिनों कौशाम्बी नगरी में विराजमान थे। जहां कोई महापुरुष अवतार लेता है, विहार करता है, वहां जितने उसके समर्थक होते हैं, उससे कहीं ज्यादा आलोचक होते हैं, निन्दक होते हैं। आम आदमी की तो बात ही क्या करें, लोग भगवानों को भी नहीं छोड़ते। कौशाम्बी नगरी में भगवान की बहुत आलोचना होने लगी, तो शिष्य बड़े घबराये। लोग भगवान के समक्ष ही उनके बारे में अनर्गल प्रलाप करते, तो शिष्यों का विचलित होना स्वाभाविक ही है। भगवान आहार के लिए निकलते तो लोग उन्हें साधु न कहकर पाखंडी कहते। भगवान के शिष्यों को यह सुनकर बड़ी ग्लानि होती, बड़ी वेदना होती। इतने शिष्यों के होते हुए भी भगवान को अशिष्ट बातें सुननी पड़े, यह शिष्यों को सहन नहीं होता था। शिष्यों ने भगवान से कहा - प्रभ! लोग अकारण ही आपको इतनी गालियां देते हैं, आप इनका प्रतिवाद क्यों नहीं करते? भगवान ने मुस्कुराकर कहा- अगर मैने ऐसा किया, तो अंधेरा मुझसे नाराज हो जाएगा। इसलिए प्रतिकार या प्रतिवाद करने की जरूरत नहीं है। विवश हो शिष्य खामोश हो गए, लेकिन आलोचना जब सीमाएं तोड़ने लगीं तो एक दिन भगवान के प्रिय शिष्य आनन्द ने साहस कर कहा - भन्ते! अब और सहन नहीं होता। अच्छा हो अगर हम यहां से किसी और स्थान को चलें। भगवान ने कहा - क्यों? यहां के लोग बहुत आलोचना करते हैं, बहुत गालियां देते हैं, इसलिए तुम घबरा कर किसी और गांव में जाना चाहते हो। मानलो, तुम किसी और गांव में गये वहां भी लोगों ने ऐसी ही गालियां दी तो? बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ६६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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