Book Title: Bina Nayan ki Bat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 29
________________ दे दो - तो मैंने चावल का एक दाना दे दिया। पत्नी बोली - चलो दे दिया, ठीक किया। इतनी गालियां क्यों देते हो? चावल का एक दाना ही तो दिया है। क्या फर्क पड़ेगा। जो बचा है, वही मुझे दे दो। मैं उसे चुन-बीन कर पका लेती हूँ, दोनों थोड़ा-थोड़ा खा लेंगे। आश्चर्य, उसने जैसे ही चावल थाली में डाले, वह भौंचक्की रह गई। उसने देखा कि उन चावल के दानों में एक दाना सोने का था। उसने पति को बुलाया और कहा - गजब हो गया। चावल का एक दाना सोने का हो गया। अरे जाइए - जाइए। सारे के सारे चावल राष्ट्रपति को दे आइए। कहीं सारे ही चावल सोने के हो जाएं! भिखारी ने कहा, अब ऐसा नहीं हो सकता। जब अवसर था, तब कंजूसी कर गया और अब सारे-केसारे चावल भी दे दूँ तो क्या ! जो समय बीत गया, सो बीत गया। . अगर आप दुनियादारी के लिए चौबीस घन्टे लगाते हों, तो कम-से-कम एक घन्टा तो अपने-आप के लिए खर्च करो। एक बात तय है कि समय बीत जाने के बाद पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगेगा। लेकिन प्रायश्चित के आंसू मुझे आप लोगों से नहीं दुलकवाने है। इसलिए राजचन्द्र का पद हृदय तक उतरने दीजिए। जन जानिए, मन मानिए, नव काल मूके कोई ने। यह काल किसी को छोड़ता नहीं है। केवल उसी के बचत खाते में समय रहता है, जो अपने समय का उपयोग कर लेता है। शेष सभी का समय बर्बाद होता है। समय का हम उपयोग करें। समय को सार्थक और सकारात्मक रूप दें। जीवन मृत्यु की ड्योढ़ी पर अपना दम तोड़े, उससे पूर्व फूल खिला होना चाहिये। फूल का खिलना ही फूल के जीने का उद्देश्य है। फूल का न खिलना, उसका कली ही बने रह जाना, उसकी अपूर्णता है, संसार में पुनर्वापसी का कारण है। पुनर्जन्म उसके साथ घटित होता रहेगा, तब तक जब तक वह पूर्ण नहीं हो जाती, कली फूल नहीं बन जाती। कली की मृत्यु, मृत्यु है। फूल की मृत्यु महामृत्यु है, जीवन का अमृत महोत्सव है। हमें मृत नहीं, अमृत होना है, मृत्युंजयी होना है। अमर वह है जो मृत्युंजय है। शेष तो, सिकन्दर भी क्यों न हो जाओ, मरते वक्त हाथ पसारे हो, खाली हो, रीते हो। जो बाहर से मर गया, मृत्यु के वक्त वह खाली चला जाता है। जो भीतर से मर गया, अपनी आत्म-सम्पदा को उपलब्ध कर गया, वह भरा चला जाता है। मृत्यु का पहरा उस पर प्रभावी नहीं होता। मृत्यु उसे अमरता के बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / २४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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