Book Title: Bina Nayan ki Bat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 31
________________ एक बार प्रभु हाथ थाम लो मेरे प्रिय आत्मन् ! मैंने सुना है महाकवि सूर अपने इकतारे पर प्रभु के भजन गाते हुए जंगल के रास्ते से गुजर रहे थे। इकतारे पर निरन्तर भजन की एक ही कड़ी गुनगुनाई जा रही थी। प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो। भक्त सूरदास अपनी धुन में गाए चले जा रहे थे। बरसात का मौसम था। आंखों से अंधे थे। सो रास्ते से चूक गये और गड्ढे में गिर पड़े। वे जानते थे, इस घनघोर जंगल में कोई व्यक्ति उन्हें बाहर निकलाने नहीं आयेगा। सो वे उस कीचड़ से भरे गड्ढे में बैठे-बैठे ही वही धुन इकतारे के साथ गुनगुनाने लगे प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो। इकतारा बजता रहा। हृदय में भक्ति की उर्मियां स्वतः खिलने लगीं। इतने में गड्ढे के बाहर से किसी ने आवाज दी, सूरदास! तुम मेरे हाथ पकड़ो और बाहर आ जाओ। सूर ने पूछा, तुम कौन हो? वह बोला, चरवाहा । मैं अपनी गायों को लेकर इस राह से गुजर रहा था, तभी मैंने तुम्हें इस गड्ढे में गिरे हए देखा। सोचा तुम्हें बचा लूँ। सो मैं रुक गया। मेरी गायें आगे बढ़ चुकी हैं। तुम जल्दी मेरा हाथ पकड़ो और बाहर निकल आओ। सूरदास ने चरवाहे का हाथ पकड़ा और बाहर निकल आये। चरवाहे ने हाथ छुड़ाकर जाना चाहा, लेकिन सूरदास ने हाथ नहीं छोड़ा। चरवाहे ने पूछा, तुम मेरा हाथ क्यों नहीं छोड़ते? सूरदास ने कहा, एक बार जो हाथ पकड़ा है, वह अब छूटने वाला नहीं है। चरवाहे ने कहा कि तुम्हें कोई गलतफहमी हो गई है। मैं तो एक सामान्य सा चरवाहा हूँ। सूरदास ने कहा, भले ही तुम चरवाहे हो। पर मेरे लिए तो कान्हा, बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / २६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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