Book Title: Bina Nayan ki Bat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 42
________________ नम्बर का गधा अगले दिन मरने वाला है । मालिक ने उस गधे को भी बेच दिया और नुकसान से बच गया । फिर एक दिन उन्हीं मुर्गों की बातचीत में उसने खच्चर की मृत्यु के बारे में सुना और उसे भी बेच दिया । इस तरह उसने हजारों रुपये भी कमा लिए और जानवरों की मृत्यु से होने वाले घाटे से भी बच गया। पर अगले ही दिन उन मुर्गों की बातचीत सुनकर उस पशुपालक के होश उड़ गये। एक मुर्गा दूसरे से कह रहा था कि बड़े अफसोस की बात है । अपना मालिक दो दिन बाद मरने वाला है। पशुपालक यह संवाद सुनकर बहुत घबरा गया और दौड़ा-दौड़ा अपने सद्गुरु के पास पहुंचा और सारा किस्सा उन्हें सुनाकर पूछा कि अब मैं क्या करूं? सद्गुरु ने कहा, तुम बिल्कुल वही करो, जो तुमने अपने घोड़े, गधे और खच्चर के साथ किया है। जैसे तुमने उन्हें बेचा है, ठीक इसी तरह तुम अपने आपको बेच डालो। मुझे आपसे भी यही खतरा है कि कहीं आप इसी तरह अपने आपको भी न बेच डालें। कबीर कहते हैं : ____ झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया हे राम! मैंने तुम्हारे लिए झीनी-झीनी चदरिया बुनी है, पर उसमें तुम चदरिया मत देखो। यह चदरिया नहीं, मेरी अर्चना है, मेरी प्रार्थना है। कबीर जब उस चदरिया को बेचने बाजार जाते, तो उसके ग्राहक नहीं ढूंढते, बल्कि ग्राहक-ग्राहक में राम को ढूंढते। परमात्मा को तलाशा करते। जिसके भीतर उन्हें राम दिखाई दे जाते, उसे कहते - भैया! यह चदरिया ले जाओ। यह चदरिया मैंने बहुत प्यार से बुनी है। बड़े प्रेम और भक्ति भाव से बुनी है। यह तुम्हारे एक जन्म नहीं, जन्म-जन्म तक काम आएगी, क्योंकि इसमें मैंने अपने आपको ऊंडेला है। अपना श्रम, अपना अहोभाव उलीचा है। इसलिए यह चदरिया नहीं, यह तो खुद कबीर है, भक्त की आत्मा है, प्रेमी का प्रेम है। यह मेरी अर्चना है। जिस दिन किसी व्यक्ति ने व्यवसाय करते-करते उस व्यवसाय को ही प्रार्थना बना लिया, तो वह व्यवसाय ही प्रार्थना हो जाएगा। वह रसमयता ही परमात्मा का प्रसाद हो जाएगा। कीमत उसी रस और प्रेम की होती है, जो प्रेम परमात्मा को पुकारता है। तुम्हारे पास है तुम्हारी प्रार्थना, तुम्हारा परमात्मा, तुम्हारी संपदा । जितनी देर तुम प्रार्थना करते हो, उतनी ही देर तुम परमात्मा में जीते हो। जितनी देर के लिए प्रार्थना से हटे, उतनी देर के लिए परमात्मा से भी तुम्हारा सम्बन्ध विच्छेद हो गया। राजचन्द्र कहते हैं -- प्रभु-प्रभु लय लागी नहीं, एक बार प्रभु हाथ थाम लो / ३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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