Book Title: Bina Nayan ki Bat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 21
________________ स्वयं बुद्ध आ जाएं तो भी उसे नहीं जगा पाएंगे। जो जीवन की अन्तिम लीला देखकर, जीवन के विनाश को पढ़कर भी नहीं जागता, तो कोई तरीका नहीं है उसे जगाने का। किसी और की मृत्यु वास्तव में हमें हमारी मृत्यु की अग्रिम सूचना है। जिस दादा से आप कल तक बोलते थे, जिस से आप प्यार करते थे, या जो आपको प्यार करता था, उसी को मृत्यु के द्वार से गुजर जाने के बाद लकड़ी की चिता पर अपने हाथ से सजाते हो और अपने हाथ से ही उसे जलाने के लिए आग लगाते हो। कल की बात है : मैं सविकल्पक ध्यान से गुजर रहा था। मैंने देखा कि मेरे सामने चिता है, और उस चिता में और कोई नहीं, वह माँ है, जिसने मुझे पैदा किया। मैं आग देने के लिए जैसे ही आगे बढ़ा, मेरा हाथ स्थिर हो गया, मैं आग न लगा सका। मेरे हाथ से मशाल छूट गयी। चिता स्वतः जल उठी। और उसी के साथ जल गया मेरा तादात्म्य जो शरीर और मेरे बीच था। काया रह गयी, पर काया के प्रति रहने वाली माया की अन्त्येष्टि हो गई। तय है कि मौत तो अवश्यंभावी है, हर किसी को मरना है और जब अवश्यम्भावी है तो माँ को भी मरना है, बाप को भी मरना है, गुरु को भी मरना है। जब मसीहा और भगवान भी चले जाते हैं, तो माँ-बाप और गुरू तो हैं ही क्या? हम दादा के शव को अपने हाथ से जलाते हैं, फिर भी हमारे भीतर मृत्यु की कहीं कोई टीस या अहसास नहीं है, कहीं कोई मृत्यु की पदचाप सुनाई नहीं देती। आखिर आदमी के सामने जीवन की परिभाषा क्या है? आदमी को जीने की कला कैसे सिखाई जाये? जो मरते को देखकर भी जीने की कला नहीं सीख सकता, उसके लिए दुनिया का कौन सा शास्त्र है? अपने हाथों से शव को जलाकर, अपने हाथों से अन्त्येष्टि संस्कार करके भी जैसे कल थे, वैसे ही आज भी बने हुए हो और जैसे आज हो, वैसे ही कल भी रहने वाले हो। मानसिकता कहीं बदल नहीं रही। दादाजी जब जीवित थे तब भी गरम चाय पीते थे, अब जब दादाजी मर गये तब भी गरम चाय पीते हो और कल अन्त्येष्टि हो जाएगी तब भी गरम चाय पियोगे। कुछ छोड़ते भी हो? गरम चाय पीना नहीं छोड़ते। खाना खाना नहीं छोड़ते। श्मशान में गप्पे ठोंकना नहीं छोड़ते। तो छोड़ते क्या हो? मन्दिर जाना छोड़ते हो। दादा जी मर गये, बारह दिन सूतक लगेगा, मन्दिर जाना छोड़ दिया। सामायिक करना छोड़ दिया। छोड़ा क्या? धर्म छोड़ा, गुरू छोड़ा, अरिहंत छोड़ा। मृत्यु के बाद जो दुगुना करना चाहिए, उसे तो नहीं करते और जिनके बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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