Book Title: Bina Nayan ki Bat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 23
________________ सम्राट भी होगा, चाहे वह कितना भी बलिष्ठ होगा, फिर भी मौत के आगे, काल के सामने तो हर आदमी झुक जाता है। पता ही नहीं चलता कि कोई आदमी कल था भी या नहीं । राजचन्द्र का पद है - छः खण्ड ना अधिराज जे, चंडे करीने नीपज्या, ब्रह्मांड मा बलवान थइ ने, भूप भारे ऊपज्या । ए चतुर चक्री चालीया, होता न होता होई ने, जन जाणिए, मन माणिए, नव काल मूके कोई ने । 'जन जाणिए, मन माणिए, नवकाल मूके कोई ने' छः खण्ड का जो पृथ्वीपति होगा, उस सम्राट का भी पता नहीं चल पाता कि वह था भी कि नहीं था। इस पृथ्वी पर आज तक न जाने कितने पृथ्वीपति सम्राट हुए, क्या किसी का पता है ? इतिहास की तारीखों में जो दो-चार लोगों के नाम मिल जाते हैं, बस उनकी बात अलग है। न जाने इस धरती पर कितने अनन्त लोग हुए हैं और कितने अनन्त लोगों का सफाया हुआ है, किसी को कुछ भी पता नहीं है । एक बात तय है कि जब इतने बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट नरेश नहीं रहे तो तुम तो हो ही किस बाग की मूली । तुम भी नहीं रहोगे । 1 जीवन का रथ जन्म और मृत्यु के दो पहियों के सहारे चलता है । जन्म के साथ जीवन का प्रारम्भ होता है और मृत्यु के साथ जीवन का समापन । लेकिन जैसे ही व्यक्ति का जन्म होता है, मृत्यु की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है । मनुष्य का जन्म जीवन के द्वार पर नहीं होता, मनुष्य का जन्म अनित्यता की गोद में होता है । मनुष्य जितने ज्यादा अपने जन्म-दिवस मनाता है, हकीकत यह है कि उसकी मृत्यु उतनी ही ज्यादा करीब होती चली जाती है इसलिए व्यक्ति का जन्म दिन वास्तव में उसका करीब आता मृत्यु दिन है । यदि व्यक्ति अपना साठवां जन्म दिन मनाता है, तो इसका अर्थ है कि वह साठ वर्ष मौत के करीब आ चुका है । अब तो धीरे-धीरे साल ज्यों-ज्यों गुजर रहे हैं, त्यों-त्यों जीवन नहीं बढ़ रहा है, बल्कि मृत्यु बढ़ रही है । यदि कोई कहता है कि मैं अपने बेटे से बड़ा हूँ, तो समझें कि मृत्यु की दृष्टि से वह आदमी बड़ा है लेकिन जीवन की दृष्टि से उसका बेटा बड़ा है। बेटा अभी और ज्यादा जिएगा । - जन्म और मृत्यु इन दो के सहारे जीवन का निर्माण होता है। जीवन तो बिल्कुल ऐसा है, जैसे वीणा के तार । जब तक तारों से संगीत पैदा हो रहा है - हो रहा है, अंगुलिया चल रही हैं, संगीत झंकृत हो रहा है लेकिन संगीत बजते-बजते बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / १८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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