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कविवर पण्डित बनारसीदास
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एवं 'सितपट चौरासी बोल' नामक ग्रन्थ इसी अध्यात्म मत के खण्डन में लिखे हैं । यशोविजयजी के लगभग ५० वर्ष बाद मेघविजयजी ने भी इसी अध्यात्ममत के विरोध में 'युक्तिप्रबोध' नामक ग्रन्थ लिखा है। जिसमें लिखा है कि" आगरे में आध्यात्मिक कहलानेवाले 'वाराणसीय' मती लोगों के द्वारा कुछ भव्यजनों को विमोहित देखकर उनके भ्रम को दूर करने के लिए यह ग्रन्थ लिखा गया है। ये वाराणसीय लोग श्वेताम्बरमतानुसार स्त्री - मोक्ष, केवलिकवलाहार पर श्रद्धा नहीं रखते और दिगम्बर मत के अनुसार पिच्छिकमण्डलु आदि भी अंगीकार नहीं करते, तब इनमें सम्यक्त्व कैसे माना जाय?
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आगे लिखा है कि आगरे में बनारसीदास खरतरगच्छ के श्रावक थे और श्रीमाल कुल में उत्पन्न हुए थे। पहले उनमें धर्मरुचि थी; सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रोषध, तप, उपधानादि करते थे; जिनपूजन, प्रभावना, साधर्मीवात्सल्य, साधुवंदना, भोजनदान में आदरबुद्धि रखते थे, आवश्यकादि पढ़ते थे और मुनि - श्रावकों के आचार को जानते थे । कालान्तर में उन्हें पण्डित रूपचंद, चतुर्भुज, भगवतीदास, कुमारपाल और धर्मदास - ये पाँच पुरुष मिले और शंका - विचिकित्सा से कलुषित होने से तथा उनके संसर्ग से वे सब व्यवहार छोड़ बैठे । उन्हें श्वेताम्बरमत पर अश्रद्धा हो गई। कहने लगे कि यह परस्परविरुद्ध मत ठीक नहीं है, दिगम्बरमत सम्यक् हैं।
वे लोगों से कहने लगे कि इस व्यवहारजाल में फँसकर क्यों व्यर्थ ही अपनी विडम्बना कर रहे हो? मोक्ष के लिए तो केवल आत्मचिन्तनरूप, सर्वधर्मसार उपशम का आश्रय लो और इन लोकप्रत्यायिका क्रियाओं को छोड़ दो। अनेक आगमयुक्तियों से समझाने पर भी वे अपने पूर्वमत में स्थिर न हो सके, बल्कि श्वेताम्बरमान्य दश आश्चर्यादि को भी अपनी बुद्धि से दूषित कहने लगे ।
अध्यात्मशास्त्रों में प्राय: ज्ञान की ही प्रधानता है और दान - शील-तपादि क्रियाएँ गौण हैं; इसलिए निरन्तर अध्यात्मशास्त्रों के श्रवण से उन्हें दिगम्बरमत में विश्वास हो गया है, वे उसी को प्रमाण मानने लगे हैं। प्राचीन दिगम्बर श्रावक अपने गुरु मुनियों (भट्टारकों) पर श्रद्धा रखते हैं, परन्तु इनकी उन पर भी श्रद्धा नहीं है ।