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बिखरे मोती उनके साथ तीन दिन रहे और उनके प्रवचन और चर्चा का भरपूर लाभ लिया, अपनी शंकाएँ रखीं और उनका समाधान भी प्राप्त किया।
स्वामीजी के प्रत्यक्ष परिचय का भी यह प्रथम अवसर था और पाटनीजी से मिलने का भी यही प्रथम प्रसंग था; जिसमें उनकी प्रतिभा, कर्मठता, दृढ़ता एवं गुरुदेवश्री के प्रति समर्पण के एकसाथ दर्शन हुए थे।
गुरुदेवश्री की यात्राओं से दिगम्बर समाज को उनका परिचय तो प्राप्त हो गया था, समाज उनसे प्रभावित भी हो रहा था, इस कारण उनका विरोध भी आरंभ हो गया था, पर उस विरोध से निबटते हुए उनके तत्त्वज्ञान को समाज में गहराई से पहुँचाने का कार्य बाकी था। आदरणीय विद्वद्वर्य श्री खीमचन्द भाई यदाकदा हिन्दी भाषी प्रान्त में आते थे, आदरणीय बाबूभाई का आनाजाना भी आरंभ हुआ था, पर व्यवस्थित रूप से जो कार्य होना चाहिए था, वह नहीं हो पा रहा था, किन्तु खीमचंदभाई के बोलों ने एवं बाबूभाई की भक्ति व आचरण ने समाज के हृदय को छूने का सफल प्रयास अवश्य किया था। मैं भी अपने तरीके से उक्त कार्य में संलग्न था। ___ मैंने अनेक बार खीमचंदभाई से चर्चा की थी कि इसप्रकार यह गंभीर तत्त्व समाज के गले नहीं उतरेगा। उसके लिए कुछ ऐसा करना होगा कि जिससे बात समाज की जड़ तक पहुँचे, तदर्थ कुछ योजनायें भी उनके सामने रखी थीं; पर बात आई-गई हो जाती थी। __ऐसे ही समय में गोदीकाजी के तन-मन-धन के समर्पण से पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट का उदय हुआ और पाटनीजी जैसे कर्मठ व्यक्तित्व ने उसका मंत्री पद संभाला। पाटनीजी भी कुछ ऐसा करना चाहते थे कि जिससे मूल दिगम्बर समाज में तत्त्वज्ञान का गहराई से प्रवेश हो। तदर्थ उन्होंने पाटनी ग्रंथमाला चलाकर उससे हिन्दी में समयसारादि का प्रकाशन किया था। मास्टर हीराचंदजी से कुछ बच्चों की पुस्तकें भी बनवाई थीं, स्वयं भी बालबोध की पुस्तकें लिखी थीं, पर बात बन नहीं पा रही थी।
इसी बीच जब गोदीकाजी ने इन्दौर शिविर में मुझसे जयपुर आकर टोडरमल स्मारक का काम संभालने का अनुरोध किया और मैंने कुछ आनाकानी की तो खीमचंदभाई बोल उठे -