Book Title: Bikhare Moti
Author(s): Hukamchand Bharilla, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 218
________________ सम्यक्त्व और मिथ्यात्व सम्यक्त्व और मिथ्यात्व जैनदर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं, जिन्हें सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन भी कहा जाता है । यहाँ दर्शन शब्द का प्रयोग मत, सिद्धान्त या देखने के अर्थ में न होकर श्रद्धान, विश्वास, प्रतीति के अर्थ में हुआ है । सम्यक्त्व शब्द का अर्थ सत्य और मिथ्या शब्द का अर्थ असत्य होता है। अतः सम्यग्दर्शन का अर्थ सत्य श्रद्धान, सत्य प्रतीति या सत्य विश्वास होता है। इसीप्रकार मिथ्यादर्शन का अर्थ असत्य श्रद्धान, असत्य प्रतीति या असत्य विश्वास होगा। यह श्रद्धान, विश्वास या प्रतीति समस्त जगत से नहीं, अपितु प्रयोजनभूत तत्त्वों से संबंध रखती है। आत्मा का मूल प्रयोजन दु:खों से मुक्त होना है, अतः जिनकी सम्यक्श्रद्धा बिना दु:ख दूर न हो सके, उन वास्तविकताओं को ही प्रयोजनभूततत्त्व कहते हैं । वे सात या नौ प्रकार के कहे गये हैं, पर उनमें सर्व प्रधान आत्मतत्त्व है, जिसकी अनुभूति बिना सम्यग्दर्शन संभव नहीं है। शरीरादि परपदार्थों एवं रागादि विकारों से भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी निज शुद्धात्मतत्त्व की अनुभूति, प्रतीति ही वास्तविक सम्यक्त्व है, इसके बिना जो कुछ भी श्रद्धान है, वह सब मिथ्यात्व है। ___ असीम निशंकता, भोगों के प्रति अनासक्ति, समस्त पदार्थों की विकृतअविकृत दशाओं में समताभाव, वस्तुस्वरूप की पैनी पकड़, पर के दोषों के प्रति उपेक्षाभाव, आत्मशुद्धि की वृद्धिंगतदशा, विश्वासों की दृढ़ता, परिणामों की स्थिरता, गुणों और गुणियों में अनुराग, आत्मलीनता द्वारा अपनी और उपदेशादि द्वारा वस्तुतत्त्व की प्रभावना; ये विशेषताएँ सम्यग्दर्शन सम्पन्न आत्मा में सहज ही प्रगट हो जाती हैं।

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