Book Title: Bikhare Moti
Author(s): Hukamchand Bharilla, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 212
________________ 204 बिखरे मोती पर के साथ आत्मा का कारकता के संबंध का निषेध प्रवचनसार की "तत्वप्रदीपिका " टीका में इसप्रकार किया है - अतो न निश्चयतः परेणसहात्मनः कारकत्व संबंधोऽस्ति । जीव कर्म का और कर्म जीव का कर्त्ता नहीं है। इस बात को पंचास्तिकाय में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - कुव्वं समं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स । ण हि पोग्गलकम्माणं इदि जिणवयणं मुणेयव्वं ॥ ६१ ॥ कम्मं पि समं कुव्वदि सेण सहावेण सम्ममप्पाणं । जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण भावेण ॥ ६२ ॥ कम्मं कम्मं कुव्वदि जदि सो अप्पा करेदि अप्पाणं । किध तस्स फलं भुञ्जदि अप्पा कम्मं च देहि फलं ॥ ६३ ॥ अपने स्वभाव को करता हुआ आत्मा अपने भाव का कर्ता है, पुद्गल कर्मों का नहीं। ऐसा जिन वचन जानना चाहिए। कर्म भी अपने स्वभाव से अपने को करते हैं और उसीप्रकार जीव भी कर्मस्वभाव भाव से अपने को करता है। यदि कर्म कर्म को और आत्मा आत्मा को करे तो फिर कर्म आत्मा को फल क्यों देगा और आत्मा उसका फल क्यों भोगेगा? जहाँ कर्त्तावादी दार्शनिकों के सामने जगत ईश्वरकृत होने से सादि स्वीकार किया गया है, वहाँ अकर्तावादी या स्वयंकर्त्तावादी जैनदर्शन के अनुसार यह विश्व अनादिअनन्त है, इसे न तो किसी ने बनाया है और न ही कोई इसका विनाश कर सकता है, यह स्वयं सिद्ध है। विश्व का कभी भी सर्वथा नाश नहीं होता, मात्र परिवर्तन होता है और वह परिवर्तन भी कभी - कभी नहीं, निरंतर हुआ करता है । यह समस्त जगत परिवर्तनशील होकर भी नित्य है और नित्य होकर भी परिवर्तनशील । यह नित्यानित्यात्मक है। इसकी नित्यता स्वतः सिद्ध है और परिवर्तन स्वभावगत धर्म है । नित्यता के समान अनित्यता भी वस्तु का स्वरूप है । सत् उत्पाद - व्यय ध्रौव्य से युक्त होता है । ' उत्पाद और व्यय परिवर्तनशीलता का नाम है और १. आचार्य उमा स्वामी : तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र ३०

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