Book Title: Bikhare Moti
Author(s): Hukamchand Bharilla, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 183
________________ 57 अजातशत्रु पण्डित बाबूभाई चुन्नीलाल मेहता भी गये। जयपुर शिविरों में तो पूर्णतः सक्रिय रहते ही थे। सामाजिक उथलपुथल में भी उनका मार्गदर्शन अन्त तक प्राप्त होता रहा है। ___ जब भी वे अपनी पंगुता का जिक्र करते तो मैं यही कहता कि आपके हाथ-पैर हम लोग तो हैं, आप आज्ञा तो दीजिए और देखिए – काम होता है या नहीं? आपके दो हाथ-पैर शिथिल हुए हैं तो सैकड़ों हाथ-पैर तैयार हो गये हैं। ___ जब वे यह सुनते तो एकदम प्रफुल्लित हो उठते। वे अच्छी तरह जानते थे कि इस असाध्य रोग से अब जीवन भर उभरना सम्भव नहीं है – इस बात को वे कहते भी थे, पर उन्हें हतोत्साह होते कभी नहीं देखा; बल्कि इस असाध्य बीमारी को भी उन्होंने आत्महित के लिए उपयुक्त व अमूल्य अवसर ही समझा था। __ अमंगल में भी मंगल देखने की वृत्ति उनकी सहज ही थी। किसी का अशुभ चिन्तन उनकी वृत्ति में था ही नहीं। किसी का बुरा करने की बात तो बहुत दूर, उन्होंने कभी किसी के बारे में बुरा सोचा भी न होगा – उनकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी था। मुझे इस बात का गौरव है कि इस महापुरुष के साथ लगातार बीस वर्ष तक कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करने का सौभाग्य मिला है। आज उनके अभाव में मैं अपने को अकेला अनुभव करता हूँ। ___पूज्य गुरुदेवश्री की उपस्थिति में श्री कुन्दकुन्दाचार्य जैसे समर्थ आचार्यों के बड़े-बड़े ग्रंथाधिराज सोनगढ़ से प्रकाशित होते थे। जयपुर से तो मात्र धार्मिक पाठ्य-पुस्तकें एवं छोटी-मोटी पुस्तकें ही प्रकाशित होती रही हैं। पूज्य गुरुदेवश्री के महाप्रयाण के बाद जब सोनगढ से उनका प्रकाशन बन्द हो गया और जयपुर इतना समर्थ न था कि उन्हें प्रकाशित कर सके, तो हमें बहुत चिन्ता हुई। हमने इस सम्बन्ध में सभी प्रमुख लोगों को एक प्रपत्र भी भेजा, जिसमें सभी का ध्यान इस ओर आकर्षित किया गया था। पर एक दिन आदरणीय बाबूभाईजी ने मुझे बुलाकर कहा – "डाक्टर साहब ! मैंने एक बात सोची है कि आचार्यों के शास्त्रों को छपाने का काम जयपुर से ही आरम्भ किया जाय। यदि आप ... ।"

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