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कविवर पण्डित. बनारसीदास
अपने आरंभिक जीवन में वे चाहे जैसे भी रहे हों, पर सैंतीस वर्ष की अवस्था में अरथमलजी ढोर के संयोग से उनके जीवन में आध्यात्मिक मोड़ आया। अरथमलजी ने उन्हें समयसार की आत्मख्याति टीका में समागत कलशों पर पाण्डे राजमलजी कृत टीका पढ़ने को दी, जिसे पढ़कर बनारसीदासजी के जीवन में आध्यात्मिक रुचि तो जागृत हो गई, पर उसका रहस्य न समझ पाने से उनकी दशा निश्चयाभासी जैसे हो गई।
इस सन्दर्भ में वे 'अर्द्धकथानक' में स्वयं लिखते हैं. - "समय अस्सिए ब्याहन गये। आए घर गृहस्थ फिरि भये ॥५९१।। तब तहाँ मिले अरथमल ढोर। करें अध्यात्म बातें जोर ।। तिनि बनारसी सौं हित कियौ। समैसार नाटक लिखि दियौ ॥५९२।। राजमल्ल नै टीका करी। सो पोथी तिनि आगै धरी ॥ कहै बनारसी सौं त बांच। तेरे मन आवेगा सांचु ॥५९३।। तब बनारसि बांचै नित्त। भाषा अरथ बिचारै चित्त ।। पावै नहीं अध्यात्म पेच। मानै बाहिर किरिआ हेच ॥५९४ ॥ __ करनी को रस मिटि गयौ, भयो न आतमस्वाद ।
भई बनारसि की दसा, जथा ऊंट को पाद ॥५९५॥ ऐसी दसा भई एकंत। कहाँ कहां लौं सो विरतंत ।। बिनु आचार भई मति नीच। सांगानेर चले इस बीच ॥५९९॥
चन्द्रभान बानारसी, उदैकरण अरु थान ॥ चारौं खेलहिं खेल फिरि, करहिं अध्यातम ग्यान ॥६०२॥ नगन हौहिं चारौं जने, फिरहिं कोठरी मांहि ॥
कहहिं भए मुनिराज हम, कछू परिग्रह नांहि ॥६०८॥" उक्त प्रवृत्ति के कारण वे बदनाम भी बहुत हुए। पण्डित होने के कारण साथियों की अपेक्षा उनकी बदनामी अधिक हुई। वे स्वयं लिखते हैं -
"कहहिं लोग श्रावक अरु जती। बानारसी खोसरामती ॥
तीनि पुरुष की चलै न बात। यह पंडित तारौं विख्यात ॥६०८॥" उनकी यह दशा १२ वर्ष तक रही। पर आश्चर्य की बात तो यह है कि इस बीच उन्होंने 'बनारसी विलास' में संग्रहीत बहुत-सी रचनाएँ लिखीं, जिनमें कोई दोष नहीं है।