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कविवर पण्डित बनारसीदास ___ मुलतान निवासी ओसवाल जातीय वर्द्धमान नवलखा वि. सं. १७४६ में लिखी गई 'वर्द्धमान वचनिका' के अन्त में लिखते हैं -
"धरमाचारिज धरमगुरु, श्री वाणारसीदास । जासु प्रसादै मैं लख्यौ, आतम निजपद वास ॥१॥ परम्परा ए गयान की, कुन्द-कुन्द मुनिराज ।। अमृतचन्द्र राजमल्लजी, सबहूँ के सिरताज ॥३॥ ग्रन्थ दिगम्बर के भले, भीष सेताम्बर चाल । अनेकान्त समझे भला, सो ग्याता की चाल ॥४॥ स्याद्वाद जिनके वचन, जो जाने सो जान ।
निश्चै व्यवहारी आतमा, अनेकान्त परमान ॥५॥ इस कृति के बीच में भी कुछ छन्द इसप्रकार के आते हैं, जिनमें बनारसीदासजी का बड़े ही सन्मान के साथ उल्लेख किया गया है। जैसे -
"जिनधरमी कुल सेहरो, श्रीमालां सिणगार । बाणारसी विहोलिया, भविक जीव उद्धार ।। वाणारसी प्रसाद तैं, पायो ग्यांन विग्यांन । जग सब मिथ्या जान करि, पायो निज स्वस्थान । वाणारसी सुदयाल ले, लाधो भेदविग्यांन ।
पर गुण आस्या छोड़ि के, लीजै सिव को थान ॥" उक्त छन्दों से पता चलता है कि मुलतानवासी ओसवाल भी बनारसीदास के प्रभाव से अध्यातमी दिगम्बर हो गये थे, जिनका बाद में पण्डित टोडरमलजी से तत्त्वचर्चा सम्बन्धी पत्र-व्यवहार हुआ था।
. उक्त छन्दों में बनारसीदास को धर्मगुरु एवं धर्माचार्य कहा गया है, उन्हें आचार्य कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र एवं पाण्डे राजमलजी की परम्परा का दिगम्बर बताया गया है। उन्हें जिनधर्मियों का मुकुटमणि, श्रीमालों का श्रृंगार, भविकजनों का उद्धारक कहा गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि उनके प्रसाद से, उनके प्रयास से हमें भेदविज्ञान की प्राप्ति हुई है। बनारसीदास की मृत्यु के ४६ वर्ष बाद आवागमन के साधनों के अभाव वाले उस युग में मुलतान जैसे सुदूरवर्ती क्षेत्र में बनारसीदास के इस प्रभाव को देखकर उनकी आध्यात्मिक क्रान्ति के प्रचार-प्रसार का अनुमान सहज लगाया जा सकता है।
आचार्य कुन्दकुन्द का समयसार एक ऐसा क्रान्तिकारी आध्यात्मिक ग्रंथ है, जिसने विगत दो हजार वर्षों में बनारसीदासजी जैसे अनेक लोगों को