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बिखरे मोती
वे सदा ही एक बात कहा करते थे कि इसप्रकार की संस्थाओं की संभाल वे लोग ही कर सकते हैं, जो स्वयं तत्वाभ्यासी हों, स्वयं भी निरन्तर स्वाध्याय करते रहे हों, तत्त्वरसिक हों और वीतरागी तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार में जीवन समर्पित करनेवाले हों, श्रद्धान के पक्के हों और किसी भी प्रकार के दबाव में आकर अपना मार्ग न बदलने वाले हों। उन्होंने अपनी इसी भावना के अनुरूप कार्यकर्त्ताओं को जुटाया और जीवन भर इसप्रकार के कार्यकर्त्ताओं की तलाश में रहे और जहाँ जो मिला, उसे इस संस्था से जोड़ने का प्रयास किया। पाटनीजी जैसे दृढ़ मनस्वी, जतीशभाई और छाबड़ाजी जैसे जीवन समर्पित करने वाले दृढ़ श्रद्धानी कार्यकर्त्ताओं का समर्पण इस संस्था को अनायास ही नहीं मिल गया है, गोदीकाजी ने बड़े ही प्रयासों से प्राप्त किया है और उन्हें सम्पूर्ण अधिकार एवं अतिरिक्त सन्मान देकर ट्रस्ट से जोड़े रखा है, उनकी भावनाओं का सदा सन्मान किया है; उन्हें तिरस्कृत करने की तो वे सोच ही नहीं सकते थे, पर उन्होंने उनसे ऊँची आवाज में भी कभी कुछ न कहा होगा ।
अमर संस्थाओं से जीवनदानियों को जोड़ने की कला और रीति-नीति गोदीकाजी के जीवन से सीखी जा सकती है।
श्री टोडरमल स्मारक भवन का पूरा निर्माण कार्य लगभग हो चुका था और आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के मंगल करकमलों से उसका उद्घाटन भी हो चुका था । यह मार्च १९६७ की बात है । उक्त अवसर पर आने के लिए मुझे भी आमंत्रण मिला था, पर उन्हीं तिथियों में मेरी परीक्षायें थीं, अतः मैं उसमें सम्मिलित नहीं हो सका था।
उसी वर्ष मई में इन्दौर में शिक्षण शिविर आयोजित था, जिसका उद्घाटन श्री गोदीकाजी ने किया था और जिसके प्रमुख प्रवक्ता खीमचन्दभाई थे। मैं भी सहायक प्रवक्ताओं में था और उत्तम कक्षा लेता था । गोदीकाजी प्रतिदिन मेरी कक्षा में बैठते थे और बड़े ध्यान से सुनते थे । खीमचन्दभाई और उनके बीच मुझे जयपुर लाने की बात चलती थी, जिसका मुझे कोई आभास न था ।
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एक दिन उन्होंने खीमचन्दभाई से कहा कि मैंने इनकी कक्षा तो सुनली है, अब मैं इनका प्रवचन भी सुनना चाहता हूँ। उस दिन खीमचन्दभाई ने अपना