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बिखरे मोती
अपने मत की वृद्धि के लिए उन्होंने भाषा कविता में समयसार नाटक और बनारसीविलास की रचना की है। विक्रम सं. १६८० में बनारसीदास का यह मत उत्पन्न हुआ। बनारसीदास के कालगत होने पर कुँवरपाल ने इस मत को धारण किया और तब वह गुरु के समान माना जाने लगा ।'
ये अध्यातमी या वाराणसीय कहते हैं कि हम न दिगम्बर हैं और न श्वेताम्बर, हम तो तत्त्वार्थी तत्त्व की खोज करनेवाले हैं। इस महीमण्डल में मुनि नहीं हैं। भट्टारक आदि जो मुनि कहलाते हैं, वे गुरु नहीं हैं । अध्यातममत ही अनुसरणीय है, आगमिक पंथ प्रमाण नहीं है, साधुओं के लिए वनवास ही ठीक है ।
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उक्त सम्पूर्ण कथन है मेघविजयजी के युक्तिप्रबोध का । इससे बनारसीदास के प्रभाव का पता चलता है ।
जिसतरह श्वेताम्बर विद्वानों ने अध्यात्ममत पर आक्रमण किए, उसीतरह दिगम्बरों ने भी किए; किन्तु दिगम्बरों ने उनके मत को 'अध्यात्ममत' न कहकर 'तेरापंथ' कहा है ।
भट्टारकपरम्परा के पोषक विद्वान् बखतराम शाह ने विक्रम संवत् १८२१ में एक 'मिथ्यात्वखण्डन' नामक ग्रन्थ लिखा, जो इस आध्यात्मिक क्रान्ति के विरोध के लिए ही सम्पूर्णत: समर्पित है। उसमें वे लिखते हैं -
" प्रथम चल्यो मत आगरे, श्रावक मिले कितेक । सौलह सै तीयासिए, गही कितु मिलि टेक ॥ २० ॥ फिर कामां में चलि पर्यो, ताही के अनुसारि ॥ २२ ॥ भट्टारक आमेर के, नरेन्द्रकीर्ति सु नाम | यह कुपंथ तिनके समय, नयो चल्यो अघधाम ॥ २५ ॥ किते महाजन आगरे, जात करण व्यौपार । बनि आवैं अध्यातमी, लखि नूतन आचार ॥ २६ ॥ " इसप्रकार हम देखते हैं कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं की ओर से प्रबल विरोध होने पर भी उक्त आध्यात्मिक क्रान्ति दिन दूनी रात
१. अर्द्धकथानक, भूमिका, पृष्ठ ४२
२. अर्द्धकथानक, भूमिका, पृष्ठ ५६ ३. वही, भूमिका, पृष्ठ ४८