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उत्तराध्ययन और महाभारत
प्रहार कर चला गया। एक साथ होने वाली इन दोनों क्रियाओं में एक जैसी समता की अनुभूति अध्यात्म की उच्च भूमिका की बात है। यह न समाज की भूमिका है, न राज्य की भूमिका है। समाज और राज्य की भूमिका में इन दोनों क्रियाओं को एक जैसा मानना मूर्खता की बात है। चंदन की अर्चा करने वाले और वसूले से प्रहार करने वाले को एक मानें, यह लौकिक समझदारी की बात भी नहीं है। नमक और कपूर को एक जैसा मानना कोई समझदारी की बात नहीं। जहां अध्यात्म की उच्च भूमिका है, समता प्रतिष्ठित हो गई है वहीं अनुभूति का यह स्वर फूट सकता है। काम और अर्थ को प्रधानता क्यों नहीं
जैन दर्शन में धर्म और मोक्ष को प्रधानता दी गई किन्तु काम और अर्थ को प्रधानता क्यों नहीं दी गई? इस प्रश्न पर भी थोड़ा विचार करें। ऐसा लगता है - अध्यात्म के आचार्यों ने केवल शाश्वत नियमों को ही स्थान दिया। समाज के नियम, काम और अर्थ के नियम, परिवर्तनशील होते हैं। परंपराएं कभी शाश्वत नहीं होतीं। अध्यात्म के आचार्यों के अशाश्वत को नहीं छुआ। जिन धर्मों ने काम और अर्थ को धर्म के साथ जोड़ा, उन्हें धर्म का रूप दिया, वहां रूढ़िवाद और अज्ञान पनपा, कठिनाइयां बढ़ीं। आज से दो हजार वर्ष पहले एक विधान कर दिया गया - कोई चोरी करे तो हाथ काट देना चाहिए। कानों में गर्म शीशा डाल देना चाहिए। इतने क्रूरतापूर्ण दण्डों का विधान किया गया। चिन्तन में बदलावं
आज सारा चिन्तन बदल गया। इन ढाई हजार वर्षों में चिन्तन में निरन्तर बदलाव आता रहा है। आज कारावासों को सधारगह बनाया जा रहा है। कारावास कारावास जैसे नहीं लगते। हमने बस्तर (बिहार) के कारावास को देखा। ऐसा सुन्दर स्थान, कैदियों के क्रीड़ा करने के लिए ऐसा बढ़िया मैदान। शायद ऐसी सुविधाएं अपने घर और गांव में भी न मिलें। कारावास देखने के बाद हमारे मन में प्रश्न उभरा - यहां आने के बाद शायद बाहर जाने का मन ही नहीं करता होगा।
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