Book Title: Bhed me Chipa Abhed
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 134
________________ प्रेक्षाध्यान और निर्विचार ध्यान ११७ हम कहें- हवा गर्म है तो यह भी सापेक्ष-सत्य होगा। हवा फिर ठण्डी हो जाती है। हर मौसम के साथ हवा का रूप बदलता रहता है। वह कभी गर्म हो जाती है, कभी ठण्डी हो जाती है। गर्मी होती है तो व्यक्ति ऊनी वस्त्र भीतर रख देता है। सर्दी अधिक होती है तो ऊनी वस्त्र बाहर निकाल लेता है। हवा अपने आप में न ठण्डी है और न गर्म। मन की भी यही बात है। मन न अपने आप में अच्छा सोचता है, न बुरा सोचता है। जैसा भाव जागृत होता है, मन की क्रिया वैसी ही बन जाती है। अच्छे भाव का प्रवाह आता है तो मन अच्छा सोचने लग जाता है। बुरे भाव का प्रवाह आता है तो मन बरा सोचने लग जाता है। हम केवल मन को न पकड़ें, विचार को न पकड़ें। मन और विचार का स्तर सतही है। अन्तर का जो स्तर है, वह कुछ और है। अमन की भूमिका श्री कृष्णमूर्ति ने भी मन को दो भागों में विभक्त किया है। एक है बाहरी मन, दूसरा है छिपा हुआ मन। जब तक हम बाहरी मन को पकड़ेंगे तब तक कुछ नहीं होगा। जब छिपा हुआ मन पकड़ में आ जाएगा तब हम भावना के स्तर पर पहुंच जाएंगे। इस स्थिति में पहुंचने पर ही प्रेक्षा की बात समझ में आ सकती है। प्रेक्षाध्यान में निर्विचार ध्यान सर्वथा सम्मत है। हमारा लक्ष्य हैनिर्विचार को उपलब्ध होना, मन से अमन की भूमिका में चले जाना। अमन शब्द प्रेक्षाध्यान में बहुत व्यवहत हुआ है। यह आगम-सम्मत शब्द है। जैन आगम स्थानांग सूत्र में दो स्थितियां बतलाई गई हैं- एक है मन की स्थिति और दूसरी है अमन की स्थिति। मन कोई स्थायी तत्त्व नहीं है। बुद्धि हमारा स्थायी तत्त्व है। जब-जब हम मन की भूमिका में चलते हैं तब दोनों प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं। अच्छा विचार भी आ सकता है, बरा विचार भी आ सकता है। जब हम अमन की भमिका में चले जाते हैं तब आत्मा की सन्निधि में चले जाते हैं। वहां पूर्ण अप्रमाद और एकाग्रता की स्थिति बनती है। निर्विकल्प चेतना और प्रेक्षा . विचार से निर्विचार की स्थिति तक पहुंचने का एक क्रम होता है। हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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