Book Title: Bhed me Chipa Abhed
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 159
________________ १४२ भेद में छिपा अभेद साम्यवाद : असफलता का कारण जब तक ममत्व का विसर्जन नहीं होता तब तक साम्य और समता की बात नहीं आ सकती। संविभाग के लिए व्यक्तिगत स्वामित्व को सीमित करना होता है और उसका सीमाकरण तब तक सम्भव नहीं होता जब तक ममत्व का अल्पीकरण न हो, विसर्जन न हो। यह सूत्र जयाचार्य और मार्क्स - दोनों के सामने रहा। मार्क्स ने अपनी घोषणाओं में कहा - साम्यवाद में शोषण नहीं होगा। व्यक्तिगत संपत्ति नहीं होगी। तीसरी बात थी-परिवार नहीं होगा। यह सत्र अध्यात्म का है। जब तक ममत्व का विसर्जन नहीं होता तब तक धर्म के क्षेत्र में कोई भी व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता। इसी सूत्र को मार्क्स ने अपनाया लेकिन जब तक अध्यात्म का आदर्श सामने नहीं रहता तब तक उसका सफल होना कैसे सम्भव हो सकता है? साम्यवाद फैल भी गया, पनप नहीं सका। मार्क्स ने इतनी बड़ी कल्पना कर ली पर साथ में धर्म को नहीं जोड़ा, अध्यात्म को नहीं जोड़ा। मार्क्स ने अन्तिम समय में अपने साथी एंजल्स से कहा - भाई! हमें धर्म और अध्यात्म की बात सोचनी चाहिए थी पर हम इतनी उलझनों में फंसे रहे कि इस दिशा में सोच ही नहीं पाए। अगर साम्यवाद की व्यवस्था के साथ अध्यात्म और धर्म को जोड़ दिया जाता हो व्यवस्था ठीक बन जाती। आज जो बदलाव की बात उठ रही है, गोर्बाच्योव साम्यवाद में जो नया काम कर रहे हैं, उसकी जरूरत भी नहीं पड़ती, साम्यवाद असफल नहीं होता। परिवारवाद से मुक्ति जयाचार्य ने भी परिवारवाद को छुड़ाया। साधु परिवार छोड़कर आता है लेकिन साधु-संस्था में प्रविष्ट होने के बाद साधुओं का भी एक नया परिवार बन जाता है। जयाचार्य के समय में ७४ साध्वियां थी और सिंघाडे थे दम। जिसने जितनी साध्वियां चाहीं, अपने पास रख लीं। एक परिवार सा बना लिया। जयाचार्य ने देखा, यह नया ममत्व बनता जा रहा है। एक ही रात में जयाचार्य ने सारी व्यवस्था को बदल दिया, एक समीकरण कर दिया, पांच-पांच या चार-चार साध्वियों का सिंघाड़ा (ग्रुप) कर दिया। मंविभाग हो गया - साधुओं के प्रत्येक सिंघाड़ें में तीन अथवा दो संत और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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