Book Title: Bhed me Chipa Abhed
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 150
________________ आचार्य भिक्षु और टॉलस्टॉय सचाइयां प्रकट कीं, जिन्हें सुनने के लिए जनता मानसिक रूप से तैयार नहीं थी। तत्कालीन समाज आचार्य भिक्षु की उन बातों से विक्षुब्ध बन गया। आचार्य भिक्षु उन कठिन परिस्थितियों में अविचलित बने रहे। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो केवल सत्य की अपेक्षा रखते हैं, और किसी बात की अपेक्षा नहीं रखते। आचार्य भिक्षु भी ऐसे ही विशिष्ट व्यक्तित्व थे । उन्होंने सत्य के लिए जानबूझ कर अनेक कष्टों को झेला। आचार्य भिक्षु तेरापंथ के स्वयंभू 'आचार्य बने । आचार्य बनने के बाद जब उन्होंने सत्य की उद्घोषणाएं कीं तब समाज में विद्रोह हो गया। समाज ने उद्घोषणा की - आचार्य भिक्षु को ठहरने के लिए स्थान नहीं दिया जाए, आहार नहीं दिया जाए, पानी नहीं दिया जाए। आज गरीबी की रेखा के नीचे जो समाज जी रहा है, पांच वर्ष तक वैसी स्थिति बनी रही। दो जून खाने को भी नहीं मिला। आचार्य भिक्षु उपवास करते, संयम और तपस्या का जीवन जीते। इस प्रकार का कठोर जीवन जीना स्वीकार किया लेकिन सत्य और संयम का पथ नहीं छोड़ा। धर्म: प्रारम्भ बिन्दु आचार्य भिक्षु ने धर्म की परिभाषा की - त्याग धर्म, भोग अधर्म । संयम धर्म, असंयम अधर्म । व्रत धर्म, अव्रत अधर्म । धर्म की यह ऐसी सरल परिभाषा है, जिसमें किसी सम्प्रदाय का प्रश्न नहीं है। वीतरागता या मोक्ष की दिशा में किसी को प्रस्थान करना है तो उसे त्याग, संयम और व्रत को अपनाना ही होगा। १३३ - टालस्टाय से पूछा गया. धर्म की बात बहुत लम्बी चौड़ी है। उसका प्रारंभ कहां से करें ? टालस्टाय ने कहा • उपवास से । भगवान महावीर ने साधना के बारह भेद बतलाए । साधना का पहला सूत्र था - अनशन - उपवास । आहार - संयम के बिना वीतरागता या धर्म की बात नहीं सोची जा सकती। सारा असंयम आहार से पैदा होता है। बहुत पहले इस सचाई को पकड़ा गया - जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन। जब तक आहार का संयम नहीं होगा, इन्द्रिय-संयम, शरीर-संयम या आसन-संयम की बात संभव ही नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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