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भेद में छिपा अभेद
- विपश्यना, पश्यना। या पासणिया। दूसरी श्रेणी की ध्यान पद्धति है - धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान, जिसका वर्णन स्थानांग में विस्तार के साथ उपलब्ध है। श्वेताम्बर और दिगम्बर – दोनों परम्पराओं के साहित्य में दीर्घकाल तक इसी पद्धति का अनुसरण किया गया। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद इन्द्रभूति गौतम, सुधर्मा और जंबू - ये केवली हुए। केवली परंपरा के विच्छिन्न होने के पश्चात् श्रुतकेवली की परंपरा चली। चतुर्दश पूर्वी श्रुतकेवली कहलाते हैं। छः श्रुतकेवली हुए - प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, संभूतविजय, भद्रबाहु, स्थूलभद्र। भद्रबाहु ने महाप्राण ध्यान की साधना की थी और यह माना जाता है कि चतुर्दश पूर्वी ही महाप्राण ध्यान की साधना कर सकता है। महाप्राण ध्यान के विषय में यत्र-तत्र कछ जानकारी है पर इसकी विशेष विधि का व्यवस्थित वर्णन उपलब्ध नहीं है। ध्यान पद्धति : कुछ आयाम
आचार्य कुन्दकुन्द की ध्यान पद्धति ज्ञाता-द्रष्टा शुद्धोपयोग प्रधान थी। वह भी प्राचीन परंपरा से अनस्यत है। पूज्यपाद का समाधितंत्र भी उसी कोटि का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। हरिभद्र सूरि ने ध्यान की पद्धति को एक नया आयाम दिया। इस विषय में योगविंशिका और योगदृष्टि समुच्चय – दोनों ग्रंथ द्रष्टव्य हैं। अन्य प्रचलित ध्यान पद्धतियों का तुलनात्मक अध्ययन तथा जैन परिभाषा के साथ उसका सामञ्जस्य बिठाने में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। आचार्य शुभचंद्र के ज्ञानार्णव तथा आचार्य हेमचंद्र के योगशास्त्र में तंत्रशास्त्र और हठयोग का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है। उसमें पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का वर्णन तथा पार्थिवी, वारुणी आग्नेयी, वायवी और तत्वरूपा - इन पांच धारणाओं का उल्लेख जैन ध्यान पद्धति के क्षेत्र में नया संग्रहण है। पिछली आठ दस शताब्दियों में इन्हीं का प्रयोग होता रहा। उपाध्याय यशोविजयजी ने हरभिद्रसूरि का अनुकरण किया है। ध्यान विचार : महत्त्वपूर्ण ग्रंथ
ध्यानविचार एक अज्ञातकर्तृक कृति है। उसमें ध्यान के चौबीस मार्ग 1. पन्नवणा ३०/१५ 2. पन्नवणा ३०/१
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