Book Title: Bhed me Chipa Abhed
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 59
________________ ४ . 'भेद में छिपा अभेद, बारे में बहुत चचा करते हैं। जो केवल भौतिक विद्याएं पढ़ते थे, उपनिषद् के ऋषि उनसे कहते - तुम आत्मा को नहीं जानते तो कुछ भी नहीं जानते। जब तक तुम पराविद्या को नहीं जानते तब तक तुम्हारा कोई समाधान नहीं हो सकता। आज की भाषा में जो परामनोविज्ञान को नहीं जानता, वह अपनी समस्याओं को नहीं सुलझा सकता। कोरा मनोविज्ञान काम नहीं देता। मनोविज्ञान सिर्फ मन तक रह जाता है और मन हमारी चेतना का एक नीचे का स्तर है। जब तक आदमी मन की भूमिका पर रहेगा तब तक वह फुटबाल की तरह इधर-उधर उछलता रहेगा। हमें मन के बहुत पार जाना है। जब तक आदमी मनोतीत भूमिका में नहीं जाएगा तब तक मन के खेल चलते रहेंगे। मन की भूमिका से परे जाने पर ही व्यक्ति आत्मा की भूमिका पर आरूढ़ हो सकता है। आचारांग : आत्मा का सूत्र __ आचारांग आत्मा के आरोहण का सूत्र है। हम आचारांग सूत्र का आदि प्रकरण पढ़ें, उसके मध्य को पढ़ें, उसके अंत को पढ़ें - सर्वत्र आत्मा ही आत्मा है। आत्मा को छोड़ दें तो आचारांग कुछ भी नहीं है। महावीर के दर्शन का केन्द्र बिन्दु है - आत्मा। आत्मा को समझे बिना न ध्यान को समझा जा सकता है, न चित्त और मन को समझा जा सकता है। जिस व्यक्ति ने आत्मा को जान लिया, अपने आपको पहचान लिया, उसकी दुनियां बिलकुल अलग हो जाएगी। उपनिषद् का ऋषि बोले या आचारांग का सूत्रकार, सचाई यही है- जिसने आत्मा का साक्षात्कार कर लिया, उसने दुनियां में आने वाले संकट और समस्याओं का पार पा लिया। आत्म-विज्ञान जैन धर्म में आस्था रखने वाले लोग लंबी-लंबी तपस्याएं करते हैं। वर्षावास के दिनों में तपस्याओं का अटूट सिलसिला-सा चल पड़ता है। यह तपस्या की प्रेरणा कहां से आती है? खाने की प्रेरणा तो आ सकती है क्योंकि भख एक मौलिक मनोवृत्ति है पर भखे रहने की प्रेरणा कहां से आती है? वह है आत्मा की प्रेरणा। आज एक नई शाखा के विकास की जरूरत है - आत्म-विज्ञान या चित्त-विज्ञान। आत्म-विज्ञान के संदर्भ में कहा जाएगा - जैसे भूख मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति है वैसे ही उपवास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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