Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 03
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 121
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यावत् वेदोदय तावद् तो, ब्रह्मचर्य मुक्षि घरची; थइ मरणीया लढवू टेके, मोहनाश मुक्ति वरची. ॥७॥ देवतणो पण देव सदा ने, ब्रह्मचर्य धारो वीरा; द्रव्य भाक्थी ब्रह्म र्याथी, पामो झट चेतन हीरा. ॥८॥ ज्ञान ध्यान वैराग्ये भन्यो, ब्रह्मचर्य धारण करशो; मोह हेतुओ तजी सदा मन, बार भावनाने वरशो. ॥९॥ पुद्गल भिक्षा त्याग करीने, शुद्ध रमणता आदरशो; घुद्धिसागर शुद्ध रमणता, शुद्ध समाधि पद वरशो. ॥ १०॥ व्यवहारधर्म. व्यवहार धर्म अवलंबन करवू, व्रत नियम पालन करवू; राजमार्ग व्यवहार धर्म छे, समजी तेमां मन धर. ॥१॥ व्यवहार धर्मथी पाप पलातुं, संवरनी करणी आवे; व्यवहार धर्मना भेद दोय छे,मुनिवर श्रावक गुण दावे. ॥२॥ व्यवहार धर्मथी शाशन चाले, धर्म कृत्यनी छे खाणी; व्यवहार धर्म छे प्रथम पगथियुं, एवी जिनवरनी वाणी. ||३|| निश्वपथी पडता प्राणीने, अवलंबन व्यवहारत'; व्यवहार हेतुने निश्चय कार्य, जिन सूत्रो समजीने भ". ॥ ४॥ संघ चतुर्विध छे व्यवहारे, अडतालीश गुणनो दरियो; व्यवहार धर्मथी उंचा आवे, वीरमभुए ते वरियो. ॥५॥ सेवा भक्ति परोपकार सहु, व्यवहारे ते चाले छ; व्यहार धर्मथी उपदेशादिक, क्रियाधर्म जन पाळे छे. ॥६॥ व्यवहार धर्म महत्ता माटे, तीर्थकर दीक्षा लेवे; केवल प्रगटे श्रुतज्ञानना, व्यवहारे भीक्षा लेवे. ॥७॥ For Private And Personal Use Only

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