Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 03
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 189
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८० शाताशाता वेदनी, तेपण नाठी दूर; सहेजानंद स्वरूपमां, सुखवर्ते भरपूर. ॥ २३६॥ पुरुषोत्तम परमातमा, परमेश्वर मुखकंद दुःखातीत स्वरूपमय, नही शब्दादिक फंद. ॥२३७॥ राग द्वेष जेमां नहीं, निर्मळ आतमज्योत; स्वसत्ताए शुद्ध थै, कर्यो महा उद्योत., ॥ २३८॥ त्रण्य भुवनमा दिनमाण, स्त्रपर प्रकाशी जेह वाणी अगोचर धर्ममय, क्षायिक गुणनुं गेह. ॥२३९ ॥ शुद्ध स्वरूपी चेतना, वर्ते त्यां बे भेदः अस्ति धर्म अनंत त्यां, नास्ति धर्म पण वेद, ॥२४० ॥ अविचल आत्म स्वरूपमय, नित्यानित्य स्वभावः । भव्याभव्यस्वभावमय, शुद्ध अनंत प्रभाव. ॥२४१ ।। 'अखंड अव्यय अज सदा, निराकार निःसंग; गुण पर्यायने ध्रौव्यता, अगुरुलघु गुण चंग. ॥२४२ ॥ अक्षर अविचल धर्ममय, वाणी लहे न पार; जाणे पण नहि कही शके, केवलज्ञानी धार. ॥२४३ ॥ निवृत्तिपद एकयुं, ज्यां नहि दुःख लगार; शिव सनातन पदवरी, लहिये सुख अपार. ॥२४४॥ तिरोभाव गुण संपदा, आविर्भावे तेह; परमातम पद जाणीये, तत्त्वमसि गुणगेह. ॥ २४५ ॥ भेदभाव हुं तुं नही, निर्मल आतम द्रव्य; अनेकगुणथी व्यक्ति एक, असंख्यप्रदेशी भव्य. ॥२४६ ॥ जीव अनंता मुक्तिमा, सरखा गुणधी होय; व्यक्ति स्वरूपे भिन्न सहु, नडे न कोने कोय.. ॥ २४७ ॥ सादि अनंति स्थिति त्यां, निर्मळ मुक्ति स्थान; पह. For Private And Personal Use Only

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